________________ 126 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ 22. सूत्रकृतांग-१/१/१३-२१ 23. उत्तराध्ययन 23/37 तुलनीय-कठोपनिषद् 1/3/3 24. समयसार-८१-९२ 25. क्रमश: निगोद और केवली समुद्घात की अवस्था में ऐसा होता है। 26. विशेषावश्यकभाष्य- 1582 27. सारख्यकारिका-१८(ईश्वरकृष्ण) 28. समवायांग- 1/1 स्थानांग- 1/1 29. भगवतीसूत्र- 2/1 30. समवायांग टीका 1/1 31. भगवतीसूत्र 1/8/10 32. वही 12/10/467 33. वीतरागस्तोत्र-८/२/३ 34. उत्तराध्ययनसूत्र- 14/19 35. भगवतीसूत्र- 9/6/3/87 36. वही 7/2/273 37. वही 9/6/387; 1/4/42 38. गीता- 2/22, तुलना करें थेरगाथा- 1/38-688. 39. शंकर का आचार दर्शन, पृ०६८ 40. Jaina Psychology. 173. 41. तिलक गीता रहस्य- पृ० 268. 42. F.H. Bradley, Ethical Studies P.313.. 43. गीता 6/45. 44. Studies in Jaina Philosophy. P. 221. 84. Jaina Psychology P. 175. 46. स्थानांगसूत्र- 8/2 47. तत्त्वार्थसूत्र 8/11 षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या षट्जीवनिकाय की अवधारणा जैनधर्म-दर्शन की प्राचीनतम वनस्पति और त्रस-ये जीवों के छ: प्रकार माने गये हैं, किन्तु इन अवधारणा है। इसके उल्लेख हमें प्राचीनतम जैन आगमिक ग्रन्थों षट्जीवनिकायों में कौन स है और कौन स्थावर है? इस प्रश्न को यथा- आचारांग', ऋषिभाषितरे, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि लेकर प्राचीनकाल से ही विभिन्न अवधारणाएं जैन परम्परा में उपलब्ध में उपलब्ध होते हैं। यह सुस्पष्ट तथ्य है कि निर्ग्रन्थ परम्परा में होती हैं। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं प्राचीनकाल से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि को जीवन में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को सामान्यतया युक्त माना जाता रहा है। यद्यपि वनस्पति और द्वींद्रिय आदि प्राणियों स्थावर माना जाता है। पंचस्थावरों की यह अवधारणा अब सर्व स्वीकृत में जीवन की सत्ता तो सभी मानते हैं, किन्तु पृथ्वी, जल, अग्नि और है। दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का जो पाठ प्रचलित है उसमें तो पृथ्वी, वायु भी सजीव हैं- यह अवधारणा जैनों की अपनी विशिष्ट अवधारणा अप्, अग्नि, वायु और वनस्पति- इन पाँचों को स्पष्ट रूप से स्थावर है। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पृथ्वी, जल, वायु आदि कहा गया है। किन्तु प्राचीन श्वेताम्बर मान्य आगम आचारांग, उत्तराध्ययन में सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति को स्वीकार करना एक अलग तथ्य है आदि की तथा तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर सम्मत पाठ और तत्त्वार्थभाष्य और पृथ्वी, जल आदि को स्वत: सजीव मानना एक अन्य अवधारणा की स्थिति कुछ भिन्न है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी कुन्दकुन्द है। जैन परम्परा केवल इतना ही नहीं मानती है कि पृथ्वी, जल आदि के ग्रन्थ पंचास्तिकाय की स्थिति भी पंचस्थावरों की प्रचलित सामान्य में जीव होते हैं अपितु वह यह भी मानती है कि ये स्वयं भी जीवन- अवधारणा से कुछ भिन्न ही प्रतीत होती है। यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम युक्त या सजीव हैं। इस सन्दर्भ में आचारांग में स्पष्ट रूप से उल्लेख की धवला टीका में इन दोनों के समन्वय का प्रयत्न हुआ है। मिलता है कि पृथ्वी, जल, वायु आदि के आश्रित होकर जो जीव रहते स और स्थावर के वर्गीकरण को लेकर जैन परम्परा के इन हैं, वे पृथ्वीकायिक, अपकायिक आदि जीवों से भिन्न हैं।५ यद्यपि प्राचीन स्तर के आगमिक ग्रन्थों में किस प्रकार का मतभेद रहा हुआ है, पृथ्वीकायिक,अपकायिक जीवों की हिंसा होने पर इनकी हिंसा भी इसका स्पष्टीकरण करना ही प्रस्तुत निबन्ध का मुख्य उद्देश्य है। अपरिहार्य रूप से होती है। आचारांग के प्रथम अध्ययन के द्वितीय से सप्तम उद्देशक तक प्रत्येक उद्देशक में पृथ्वी आदि षट्जीवनिकायों 1. आचारांग की हिंसा के स्वरूप, कारण और साधन अर्थात् शस्त्र की चर्चा हमें आचारांग में षट्जीवनिकाय में कौन स है और कौन स्थावर उपलब्ध होती है। आचारांग, ऋषिभासित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक है? इसका कोई स्पष्टतः वर्गीकरण उल्लेखित नहीं है। उसके प्रथम आदि में षट्जीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु, श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में जिस क्रम से षट्जीवनिकाय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org