SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.- .-.-. जैन जाति और उसके गोत्र 0 श्री बलवन्तसिंह महता भू०पू० संसद सदस्य, रैन बसेरा, उदयपुर जैन जाति के लिए यह कम गौरव और महत्त्व की बात नहीं है कि इस देश का नाम भारतवर्ष जैनधर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के बड़े पुत्र चक्रवर्ती के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी तरह इस देश की दो प्रधान संस्कृतियाँ मानी गयी हैं जो वैदिक और श्रमण के नाम से जानी जाती हैं । वैदिक सत्यमूलक है तो श्रमण अहिंसामूलक । वैदिक सनातन या ब्राह्मण धर्म कहलाता है तो श्रमण वीरों का क्षात्रधर्म माना जाता है। वैदिक धर्म व संस्कृति के इस देश के बाहर से आये हुए आर्यों की होने के कारण श्रमण संस्कृति ही इस देश की मूल व आदि संस्कृति और जैनधर्म इसी संस्कृति का प्रधान अंग होने से इस देश का मूल व आदि धर्म माना गया है जिसे देश के राष्ट्रनेता पण्डित जवाहरलालजी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' (भारत की कहानी) में खुले रूप से स्वीकार किया है। यह भी जैन जगत के लिए कर्म गर्व व गौरव की बात नहीं मानी जा सकती। जैन धर्म में परम+आत्मा परमात्मा का निषेध नहीं है पर वह उसे सृष्टिकर्ता नहीं मानता। जैनधर्म का जातिपाँति में विश्वास नहीं है किन्तु वह अपने 'कम्मेसूरा सो धम्मेसूरा' के मौलिक सिद्धान्त के अनुसार जैनधर्म को वीरों का धर्म मानने के कारण क्षात्रत्व को धर्मपालना में महत्त्व ही नहीं देता अपितु प्राथमिकता भी देता है। जैन धर्म के आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रवेश में जाति, पाँति, वर्ण आदि पर कोई रोक नहीं है पर तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थकरों के क्षत्रियकुल में जन्म होने की अनिवार्यता को खुले रूप से स्वीकार किया है। इस मान्यता का हिन्दू धर्म पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। जैन धर्म के २४ तीर्थंकरों के अनसार हिन्दू धर्म ने भी २४ अवतार माने हैं। तीर्थंकरों द्वारा तीर्थस्थापना के उद्देश्य के अनुसार अवतारों द्वारा भी गीता के अनुसार 'धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे'-धर्म संस्थापन की ही कल्पना की गयी है। अवतारों में वामन, परशुराम आदि ब्राह्मण अवतार हैं किन्तु ब्राह्मणों द्वारा भी मन्दिरों में पूजा क्षत्रियकुल में उत्पन्न अवतारों की ही करवायी गयी है। यह जैनधर्म की इस मान्यता का हिन्दूधर्म पर प्रत्यक्ष प्रभाव दिखायी पड़ता है। वैसे उपनिषदों ने तो 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्य' कहकर अध्यात्मक्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक मुमुक्ष पर यह अनिवार्यता कर दी है। महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद १२ वर्ष तक गौतम स्वामी के जीवित रहने पर भी श्वेताम्बरों का सुधर्मा स्वामी को पट्टधर मानने का भी यही कारण था कि सुधर्मा स्वामी क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। आज भी श्वेताम्बर समाज में आचार्य पदवी प्रायः उसी को दी जाती है जो मूल में क्षत्रिय कुल का हो । अस्तु । दक्षिण देश कर्णाटक में जैनधर्मावलम्बी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि सब ही वर्गों में मिलेंगे पर उत्तर भारत और पश्चिम में जैनधर्म वैश्य वर्ग तक ही सामित हो गया है। पर ये मूल में सब ही क्षत्रिय कुल के हैं। उत्तर भारत, मध्यभारत, राजस्थान और गुजरात के क्षत्रियों की मुख्य शाखाएँ निम्न मानी गयी हैं (१) गहलोत-सिसोदिया, (२) राठौड़, (३) चौहान, (४) परमार, (५) झाला, (६) सोलखी आदि । आज जैनी क्षत्रियों की उपरोक्त मूल शाखाओं के ज्यों के त्यों इसी रूप में पाये जाते हैं। यही नहीं, इनकी उपशाखाओं याने इनसे निकली हुई खां जो नीचे दी जाती हैं उनमें भी वे उसी खांप व गोत्र से जाने जाते हैं । क्षत्रिय कुलों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210640
Book TitleJain jati aur Uske Gotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalwansinh Mehta
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size343 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy