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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
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0 0 0 .0.0.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. से कई उपशाखाएँ निकलीं किन्तु यहाँ हम उन्हीं शाखाओं या खांपों को दे रहे हैं जो आज जैनियों के भी गोत्र हैं। आज भी जैनियों के शादी विवाह के वे ही रस्म-रिवाज हैं जो क्षत्रिय कुलों के हैं।
गहलोत-सिसोदिया, पीपाडा, भटेवरा ओड़लिया, पालरा (पालावत), कुचेरा, डामलिया, गोधा, मांगलिया, मोड हूल, स्वरूपरिया, चितौड़ा, आहाडा, राणा, भाणावत, गोभिल ।
राठोड़--डांगी, माण्डौत, कोटडिया, भदावत, पौरवरणा। चौहान-मादरेचा, हाडा, वागरेचा, बडेर, चंडालिया, गेमावत, जालौरी, सामर । परमार-सांखला, छाहड़, हुमड़, काला, चौरडिया, गेहलडा, पिथलिया। पडिहार-बापणा, चौपड़ा। झाला-मकवाना। नाग-टांक या टाक कछवाह-गोगावत सोलखी-सोजतिया, खेराड़ा, भूहड़ यादव–पुगलिया
राजपूतों की पूरी खांपों का इतिहास अभी तक प्रगट नहीं हुआ है वरना और भी गोत्रों का पता चल सकता है । राजपूतों में भी कई गोत्र स्थानवाचक हैं, जैसे सिसोदिया, अहाड़ा, पीपाड़ा, भटेवरा आदि; इसी प्रकार जैन जातियों में भी अधिकांश स्थानवाचक व पेशे व पद के सूचक हैं । जो यहाँ दिये जा रहे हैं
स्थानवाचक-सिसोदिया, भटेवरा, पीपाड़ा, अहाड़ा (अहाड़ से), मारु (मारवाड़ से), ओस्तवाल व ओसवाल (ओसियां से), देवपुरा, डूंगरपुरिया, जावरिया, चित्तौड़ा, सींगटवाडिया, नरसिंहपुरा, जालोरी, सिरोया, खींवसरा, पालीवाल, श्रीमाल, कंठालिया, डूंगरवाल, पोरवाल, कर्णावट, गलूँडिया, कछारा (कच्छ) से, डांगी, (डांग से), गोडवाडा।
व्यापार सूचक-जौहरी, सोनी, हिरन (सोने का व्यापार करनेवाला, सोनी जेवरों में) लुणिया, बोहरा (बोरगत), गांधी, तिलेसरा, कपासी, विनोलिया, संचेती (थोकमाल का व्यापारी), भण्डशाली (पहले गोदामों में माल भाण्डों में रखा जाता था), रांका (ऊन के व्यापारी), दोशी (कपड़े का व्यापारी), पटवा, बया (तोलने वाला)।
पद वाचक-पगारिया (वेतन चुकाने वाला), वोथरा--बोहित्थरा (जहाज से माल मँगाने वाला) हिलोत (सेलहत्थ-भाला रखने वाले), महता (लेखन का काम करने वाला या राणियों के कामदार), चौधरी, कोठारी, भण्डारी, खंजाची, बेताला (खानों पर काम कराने वाला), नानावटी, कावेडिया (कवडिये सिक्के के व्यापारी,), गन्ना, मंत्री, सिंघवी, सेठिया, साहु (शाह), खेतपालिया, वेद, नाहरा, साहनी (घोड़ों का अफसर), छाजेड़ ।
सिन्ध से आये हुए-ललवानी, सोमानी, छजलानी, चोखानी, सोगानी।
उपरोक्त जो भी कुछ गोत्र दिये गये हैं वे सब मध्यपूर्व व मध्य युग में जैनाचार्यों द्वारा जैन धर्म में जिन क्षत्रियों को दीक्षित किया गया था उन्हीं के हैं। अब हम उन गोत्रों पर प्रकाश डालेंगे जो महावीर काल में या उनके पीछे जैन ग्रन्थों में पाये जाते हैं और इतिहास के अन्धकार में उनके उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई मनगढन्त कथाएँ प्रचलित कर दी गयी हैं।
दोशी को दोषी बताते हुए जैन जाति का अन्तिम परिवर्तित गोत्र मानकर इसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा जाता है कि 'और भी कोई होसी' । यह बहुत ही प्राचीन जाति है जो सूत और रेशम के वस्त्रों का व्यापार करती थी। जो ब्राह्मण व्यापारी हो गये हैं उनमें भी आज दोशी गोत्र हैं। भगवान् महावीर की दीक्षा के समय जो शरीर पर वस्त्र था वह दुष्य ही था। उसके व्यापार करने वाले को दोशी कहा गया था। शत्रुजय का अन्तिम
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