________________ ताड़पत्रों पर निर्मित चित्रों में देखने को मिलता है जैन कलाकारों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। चौदहवींजहाँ बारीक रेखाओं द्वारा अल्प स्थान में ही निर्मित पन्द्रहवीं शती में जैन कलाकारों द्वारा जहाँ "मार्कण्डेय चित्रों में कलाकारों ने अपनी प्रतिभा एवं कौशल का पुराण" तथा "दुर्गा सप्तमी" जैसे जैसे वैष्णव ग्रन्थों के पूर्ण प्रदर्शन किया है। जैन शैली के चित्रों में नेत्रों की चित्र निर्मित किए गये हैं, वहाँ सोलहवीं-सत्रहवीं शती बनावट पर विशेष ध्यान दिया गया है। ताङपत्रों पर में जहांगीर के दरबारी चित्रकारों में सालिवाहन नामक अंकित सूक्ष्म रेखाएं इतनी सार्थक हैं कि उनके कारण जैन चित्रकार द्वारा "आगरा का विज्ञप्ति पत्र" चित्र में पूर्ण सजीवता प्रतीत होती है जिन्हें देखकर (1667 वि.) तथा मतिसार चित्र “धन्नाशालिभद्रकोई भी कलाकार इनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह चौपई, का भी चित्रांकन किया गया / इसी प्रकार सकता / जैन पोथियों के बाहर सुरक्षा के लिए बँधी अकबर के काल में समय सुन्दर नामक जैन मुनि द्वारा लकड़ियों की तख्तियों पर भी सुन्दर चित्रकारी देखने "अर्थ रत्नावली” नामक एक ग्रन्थ की रचना कर को मिलती है / जैसलमेर के जैन मन्दिरों में ऐसी बादशाह को भेंट किया गया। जितनी भी लकड़ी की सचित्र तख्तियाँ थीं उनके चित्र . इस प्रकार जैन धर्म के प्रति अपनी अटूट निष्ठा लेकर उन्हें सुरक्षित रखा गया है, अन्य जैन शास्त्र को स्थिर रख जैन कलाकारों ने जैन कला का जिस भण्डारों में भी ऐसा किए जाने की आवश्यकता है। धैर्य, निष्ठा व विश्वास के साथ चित्रांकन किया वह इस प्रकार जहाँ जैन धर्मानुयायियों ने करोड़ों विश्व में अपनी सानी नहीं रखता / राज्याश्रयों के रुपया व्यय कर कला का पोषण किया है वहां जैन मुनियों विलासितापूर्ण वातावरण से विलग तथा धार्मिक ने भी एकाग्रभाव से तन्मयत पूर्वक हजारों ग्रन्थों की सीमाओं से बँधे रहने के कारण जैन चित्रकला में प्रतिलिपि एवं स्वतन्त्र रचना कर कला की समृद्धि में लोक जीवन की वास्तविक अभिव्यक्ति हुई है। उसकी महान योग दिया है। जैन ग्रन्थकारों की कृतियों में आकृतियों, रेखाओं और साज-सज्जा आदि सभी में एक और विशिष्ट विशेषता देखने को मिलती है, कि लोककला का समर्थ रूप विद्यमान है उसमें वैसे ही अनेक कृतियों में लिखने के बीच-बीच इस ढ़ग से खाली लोक सौन्दर्य एवं लोक संस्कृति के तत्व छिपे हैं जैसे स्थान छोड़ा गया है कि अपने आप छत्र, कमल, सांची और भरहुत की कृतियों में है। इसलिए लोकस्वस्तिक आदि उभर आते हैं। जैन चित्रकारों में जहाँ कला का जो वास्तविक प्रतिनिधित्व जैन कला में जैन परम्परा के विकास का बड़ा महत्वपूर्ण कार्य समाहित है, वैसा न तो बौद्ध कला में दिखाई देता है किया है वहाँ अन्य परम्पराओं के विकास में भी कई और न राजपूत कला में है।' 7. भारतीय चित्रकला-वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ 143 / 3 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org