________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि भी बढ़ जाती है। नामकर्मोदय से प्रत्येक जीव की अपनी- अपनी विशेष पहचान वाला स्पर्श, गन्ध, स्वर आदि होते हैं। आज वैज्ञानिक क्षेत्र में इनकी संवेदनाओं का विशेष शोध-खोजपूर्ण अध्ययन हो रहा है और हमारे सामाजिक जीवन में उपयोग करके उनसे लाभ भी लिया जा रहा है। जैसे अपराध और अपराधियों की खोज करने के लिए सूंघकर अपराधी का पता लगाने वाले विशेष कुत्तों को पुलिस प्रशिक्षित करके इनके द्वारा अपराध संबंधी अनेक गुत्थियों को सुलझाने में सहज ही सफलता प्राप्त कर लेती है। यह गन्ध नामकर्म की ही महत्ता है। "स्पर्श" के द्वारा भी अनेक सम्वेदनाओं का ज्ञान सहज हो जाता है। इसी प्रकार नामकर्म की इन प्रकृतियों का वैज्ञानिक अध्ययन रोमांचिक उपलब्धि से युक्त होकर विभिन्न क्षेत्रों में बहुआयामी रूप में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। 0 जैनदर्शन, साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति के संवर्द्धन, संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार में सदैव तत्पर डॉ. श्री फूलचन्दजी जैन 'प्रेमी' का जन्म 12 जुलाई 1648 को दलपतपुर ग्राम (सागर-म.प्र.) में हुआ। प्रारंभिक शिक्षोपरांत आपने जैनधर्म विशारद, सिद्धान्त शास्त्री, साहित्याचार्य, एम.ए. एवं शास्त्राचार्य की परीक्षाएं दी। “मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन" विषय पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा पीएच.डी. की उपाधि से विभूषित डॉ. प्रेमी जी को कई पुरस्कारों से आज दिन तक सम्मानित किया गया है। जैन जगत् के मूर्धन्य विद्वान् डॉ. प्रेमी ने अनेक कृतियों का लेखन-संपादन करके जैन साहित्य में श्री वृद्धि की है। अनेक शोधपरक निबंध जैन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ! राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में जैनदर्शन विषयक व्याख्यान ! 'जैन रत्न' की उपाधि से विभूषित डॉ. प्रेमी जी सरलमना एवं सहृदयी सज्जन है। ___ मृग की नाभि में कस्तूरी की पिण्डिका रहती है। उसको अपने पिंड से सुगन्धी आती है, किन्तु वह उसको ढूँढता बाहर फिरता है। उसके लिए वह पूरे जंगल को छान मारता है, सूंघता रहता है कि यह सुगन्धी कहाँ से आती है? लेकिन प्राप्त नहीं होती। क्यों? उसको उसकी उपस्थिति का ज्ञान नहीं है। सुगन्धी तो उसके अपने शरीर में ही है। लेकिन वह उसे बाहर ढूँढता-ढूँढता ही जन्म गवां देता है, बंधुओ! हमारी भी यही हालत है, हम ढूँढते रहते हैं, सुख यहाँ मिलेगा, वहाँ मिलेगा, वहाँ भागते है, वहाँ भागते है, कितना उपक्रम करते हैं - इच्छित सुख की प्राप्ति के लिए। लेकिन इच्छित सुख मिलता नहीं। क्योंकि हम सुख का आधार वस्तु को मानकर चलते है। ज्ञानी पुरुष, मनीषी साधक, सुख का आधार वस्तु को नहीं आत्मा को मानते है। अनंत सुखात्मक आत्मा ही है। - सुमन वचनामृत जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org