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जैन संस्कृति का आलोक
४१. निमान (निर्माण) नामकर्म
निश्चित मान (माप) को निमान कहते हैं। इसके दो भेद हैं-प्रमाण और स्थान । जिस कर्म के उदय से अंगोपांगों की रचना यथाप्रमाण और यथा स्थान हो उसे निमान या निर्माण नामकर्म कहते हैं। ४२. तीर्थंकर नामकर्म
जिस कर्म के उदय से तीन लोकों में पूज्य परम आर्हन्त्य पद प्राप्त होता है वह परमोत्कृष्ट तीर्थंकर नामकर्म
है।
३१. शुभ नामकर्म
जिसके उदय से शरीर के अंगों और उपांगों में रमणीयता (सुन्दरता) आती है वह शुभनामकर्म है। ३२. अशुभ नामकर्म
जिसके उदय से शरीर के अवयव अमनोज्ञ हों उसे अशुभ नामकर्म कहते हैं। ३३-३४. सुभग, दुर्भग नामकर्म
जिसके उदय से स्त्री-पुरुष या अन्य जीवों में परस्पर प्रीति उत्पन्न हो उसे सुभग नामकर्म तथा रूपादि गुणों से युक्त होते हुए भी लोगों को जिसके उदय से अप्रीतिकर प्रतीत होता है उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं। ३५-३६. आदेय, अनादेय नामकर्म
जिसके उदय से आदेय-प्रभा सहित शरीर हो वह आदेय तथा निष्प्रभ शरीर हो वह अनादेय नामकर्म है। ३७-३८. सुस्वर, दुस्वर नामकर्म
जिसके उदय से शोभन (मधुर) स्वर हो वह सुस्वर तथा अमनोज्ञ स्वर होता है वह दुःस्वर नामकर्म है। ३६-४०. यश कीर्ति, अयश कीर्ति नामकर्म
जिसके उदय से जीव की प्रशंसा हो वह यशः कीर्ति तथा निन्दा हो वह अयशः कीर्ति नामकर्म है।
___इस प्रकार ये नामकर्म की ४२ पिण्ड प्रकृतियाँ हैं। इन्हीं में एक-एक की अपेक्षा इनके ६३ भेद हैं। इनमें अन्तिम तीर्थंकर नामकर्म का आस्रव दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का विधान है। यद्यपि ये एक साथ सभी सोलह भावनाएँ आवश्यक नहीं है किन्तु एक दर्शन विशुद्धि अति आवश्यक होती है। दो से लेकर सोलह कारणों के विकास से भी तीर्थंकर नामकर्म बंध होता है।
इस प्रकार नामकर्म की बयालीस प्रकृतियों तथा उत्तर भेद रूप तेरानवें प्रकृतियों के स्वरूप विवेचन से स्पष्ट है कि यह नामकर्म कितना व्यापक, सूक्ष्म और अति संवेदनशील कर्म है। आधुनिक विज्ञान में जहाँ नितनवीन प्रयोग हो रहे हैं, वहीं इस नामकर्म की महत्ता और
१. जैन साहित्य का इतिहास प्रथम भाग पृ. ३८
३. मूलाचार १२/१६३-१६६ तत्वार्थसूत्र ८/११ ४. गतिर्भवः संसारः मूलाचार टीका १२/६३ ५. जातिर्जीवानां सद्रशः परिणाम - वही ६-७-८. मूलाचारवृत्ति १२/१६३ ६. गोम्मटसार कर्मकाण्ड हिन्दी टीका (आर्यिका आदिमती जी) पृ. २६ १०-१२. मूलाचारवृत्ति १२/१६४
| जैन कर्मसिद्धान्त : नामकर्म के विशेष सन्दर्भ में
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