________________ जैन-आगमों में योगदृष्टि | 263 आगमों में सबसे महत्त्वपूर्ण भावनाएँ निम्न कही गई हैं-१. मैत्री 2. प्रमोद 3. कारुण्य और 4. माध्यस्थ्य / तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता के अतिरिक्त पातञ्जल योगसूत्र, अमितगति के भावना चिन्तन, हेमचन्द के योगशास्त्र प्रादि में इन्हीं का बाहल्य है। प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने इन्हों पर विशेष जोर दिया है और उन्होंने अपने योगदृष्टिसमुच्चय में पाठ योगसम्बन्धी भावनाएँ व्यक्त की हैं। परिमार्जनयोग शरीर को स्वस्थ रखने के लिये मन, वचन और काया की शुद्धि के अतिरिक्त प्रागमों में 6 प्रकार के वैज्ञानिक साधनों को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है वह प्राज जहाँ एक और प्रात्मपरिमार्जन का साधन है वहीं दूसरी ओर शारीरिक प्राधि-व्याधियों को दूर करने के लिये निम्न साधनों का होना आवश्यक है-१. इच्छाओं का रोकना 2. समर्पण की भावना 3. प्रतिक्रमण, 4. कायोत्सर्ग 5. भक्तिभावना एवं 6. प्रत्याख्यान / इन साधनों के अतिरिक्त 22 प्रकार के परिषहों पर विजय, पाठ प्रकार के मदों का त्याग, बारह प्रकार के तपों में प्रवृत्ति, दस प्राणों अर्थात् प्राणशक्ति की क्षमता पर विचार, लेश्या, चिन्तन प्रादि आवश्यक माने गए हैं। प्राणशक्ति को तीव्र करने के लिये विविध प्रकार के आसनों पर बल दिया जाता है, इससे आभामण्डल स्वच्छ एवं निर्मल होता है। शारीरिक एवं मानसिक तनाव की मुक्ति के लिए इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। पेट की समस्त बीमारियों इससे विचारशक्ति बढ़ती है, चिन्तन जागृत होता है और चित्त की चंचलता प्रादि भी दूर होती है / इसलिए ध्यान की जो विविध दृष्टियाँ प्रागमों, सिद्धान्तग्रन्थों में कही गई हैं वे साधक की सत्य-दष्टि में पानी चाहिए, इससे जीवन को जीने की कला का वास्तविक आभास हो सकेगा। 1. मित्रा तारा बला दोप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योगदृष्टीना लक्षणं च निबोधत / / गाथा 13 / / आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org