________________ 88 अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल चउविधि संखाणे पण्णत्ते तं जहा | परिकम्म ववहारे रज्जु रासी // '-7 इस गाथा पर अद्यावधि किसी ने ध्यान नहीं दिया है / एक ही ग्रन्थ में दो प्रकार के उल्लेख क्यों हैं ? संख्यान के चार प्रकार पिछले पृष्ठ पर उद्धृत दत्त के निष्कर्ष के प्रतिकूल हैं। क्या यहाँ संख्यान से कोई भिन्न अर्थ ध्वनित होता है ? अथवा क्या यहाँ पर इंगित संख्यान के प्रकार कोई विशेष गुण रखते हैं ? इस विषय पर अभी और व्यापक विचार विमर्श अपेक्षित है। 1. Agrawal, N. B. - 'गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान' आगरा वि. Lal वि० में प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध 1972 / 2. Bose, D M. & - A Concise History of Sciences in India' Sen, S N I. N. S. A.--New Delhi. 1971 3. Dutt, B. B - 'The Jaina School of Mathematics' B. C. M. S. (Calcatta). 21 pp. 115-143, 1929 4. Dutt, B. B & - 'हिन्दू गणित शास्त्र का इतिहास' (हिन्दी संस्करण) अनु० डा० कृपाशंकर Singh A. N. शुक्ल-उ० प्र० हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, लखनऊ, 1967 / 5. Jain. G. R. 'Cosmology.Old & New' (Hindi Ed) Bhartiya Jnanpitha, New Delhi 1974. 6. Jain, L.C. 'तिलोयपण्णत्ति का गणित' अन्तर्गत जम्बद्दीवपण्णत्तिरागते, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर 1950 / / 7. Jain, L. C. - 'Set Theory in Jaina School of Mathematics I. J. H. S. (Calcutta), 8-1, pp. 1-27. 1973 8. Jain, L. C. 'आगमों में निहित गणितीय सामग्री एवं उसका मूल्यांकन' 'तुलसी पूज्य' लाडन पु० 35-74, 1980 9. Jain, L. C. - Exact Sciences from Jaina Sciences. Vol. I Rajasthan Prakrita Bharati, Jaipur 1983. 10. Kapadia, H. R. - Introduction of Gorilo Tilak' Gaek wad Oriental Series, Baroda 1937. 11. Upadhyaya,BL -- 'प्राचीन भारतीय गणित' विज्ञान भारती, दिल्ली 1971 12. Shah, A L - 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास-भाग 5 पा० वि० शोध-संस्थान, वाराणसी 1969 / 13. Srinivas, C P. - The History of Ancient Indian Mathematics National Iengar World Press Calcutta 1967. 14. - अंग सुत्ताणि-भाग 1, जैन विश्व भारती, लाडन 1975 15. - - ठाणं (स्थानांग सूत्त) टीक, जैन विश्व भारती, लाडन् 1980 16. - तिलोपपण्णत्ति-सटीक जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर 1944 17. - - गणितसार संग्रह (हिन्दी संस्करण) जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर 1962 1. ठाणं 4, सूत्र, 505, पृ० 438 / Jain, L. C. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org