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___- यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - ११. लोकविभाग
करते थे। डा. सुदीप जी के शब्दों में इन दोनों महापुरुषों के १२. जंबुद्वीपपण्णति
प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव से शूरसेन जनपद में जन्मी
शौरसेनी प्राकृत भाषा को सम्पूर्ण आर्यावर्त में प्रसारित होने का १३. अंगपण्णति
सुअवसर मिला था। (प्राकृतविद्या जुलाई-सितंबर ९६, पृ. ६) १४. क्षपणसार
यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी लें तो प्रश्न १५. गोम्मटसार (दसवीं शती)
उठता है कि अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में जन्म थे, किन्तु इनमें से कसायपाहड को छोडकर कोई भी ग्रन्थ वासुपूज्य चम्पा में जन्मे थे, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ और श्रेयांस काशी ऐसा नहीं है, जो पाँचवीं शती के पर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ . जनपद में जन्मे थे, यही नहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और गुणस्थान सिद्धांत एवं सप्तभंगी की चर्चा अवश्य करते हैं और मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या में जन्मे थे। ये सभी क्षेत्र तो मगध गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में पाँचवीं शती से पर्व के ग्रन्थों में के ही निकटवर्ती क्षेत्र हैं, अतः इनकी मातृभाषा तो अर्धमागधी रही अनपस्थित है। श्वेताम्बर आगमों में समवायांग और आवश्यक. होगी। भाई सुदीप जी के अनुसार यदि शौरसेनी अरिष्टनेमि जितनी निर्यक्ति में दो प्रक्षिप्त गाथाओं को छोडकर गणस्थान की चर्चा प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ जितनी प्राचीन सिद्ध होती पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि षटखण्डागम. मलाचार. है, अतः शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन ही है। भगवतीआराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रंथों में यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख इनकी चर्चा पाई जाती है, अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे परवर्ती हैं। और प्राचीन आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलने थे, किन्तु ईसा इसी प्रकार उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञ की चौथी, पाँचवीं शती के पूर्व का कोई भी ग्रन्थ और अभिलेख भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी शौरसेनी में उपलब्ध क्यों नहीं होता है? परवर्ती टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चाएँ प्रस्तुत करती हैं।
नाटकों में शौरसेनी प्राकत की उपलब्धता के आधार पर उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शती के लगभग हैं। अतः
उसकी प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं विनम्रतापूर्वक यह निश्चित है कि गुणस्थान का सिद्धांत पाँचवीं शती में अस्तित्व
पूछना चाहूँगा कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में कोई भी नाटक में आया है। अत: शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ जो
ईसा की चौथी-पाँचवीं शती से पूर्व का है? फिर उन्हें शौरसेनी गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का
की प्राचीनता का आधार कैसे माना जा सकता है। मात्र नाटक नहीं है। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में मात्र कसायपाहुड ही
___ ही नहीं, वे शौरसेनी प्राकृत एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख ऐसा है जो स्पष्टत: गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है, किन्तु
दिखा दें जो अर्धमागधी आगमों और मागधी-प्रधान अशोक, उसमें भी प्रकारान्तर से १२ गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध है, अतः
खारवेल आदि के अभिलेखों से प्राचीन हो। अर्धमागधी के यह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं, जिनका
अतिरिक्त जिस महाराष्टी प्राकृत को वे शौरसेनी से परवर्ती बता उल्लेख आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में है, से परवर्ती और
रहे हैं, उसमें हाल की गाथा सप्तशती लगभग प्रथम शती में गुणस्थान सिद्धांत के विकास के संक्रमण काल की रचना है, अतः
रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से प्राचीन है। उसका काल भी चौथी से पाँचवीं शती के बीच सिद्ध होता है।
पुन: मैं डा. सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला ध्यान दिलाना चाहूँगा, वे प्राकृतविद्या, जुलाई-सितंबर ९६ में
शौरसेनी की प्राचीनता का गणगान इस आधार पर भी लिखते हैं कि दिगबरों के ग्रंथ उस शौरसेनी प्राकत में है. जिससे किया जाता है कि यह नारायण कष्ण और तीर्थंकर अरिष्टनेमि मागधी आदि प्राकृतों का जन्म हुआ। इस संबंध में मेरा उनसे की मातभाषा रही है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों का जन्म शरसेन निवेदन है कि मागधी के संबंध में 'प्रकृतिः शौरसेनी' (प्राकृतमें हुआ था और ये शौरसेनी प्राकृत में ही अपना वाक व्यवहार प्रकाश ११/२) इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं, वह
भ्रान्त है और वे स्वयं भी शौरसेनी के संबंध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्'
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