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यतीन्द्र सूरि मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - नाटकों की शौरसेनी का जन्म ईसा की तीसरी शती के पूर्व का अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित नहीं है, जबकि नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक संस्करण माथुरी वाचना लगभग चतुर्थ शती के समय अस्तित्व के अभिलेखों से अर्थात् ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। में अवश्य आए थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित इससे यही फलित होता है कि अर्धमागधी आगम प्राचीन थे, नहीं होगा, वस्तुतः ये आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आगमों का शब्द-रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परंपरा में मान्य आगमों के ही न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में हुआ है। दिगंबर मान्य आगमों शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय परंपरा में मान्य थे और की वह शौरसेनी जिसकी प्राचीनता का बढ़-चढ़कर दावा किया जिनकी भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही प्रभावित है मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के संबंध में
और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर वरन् अपनी विस्तृत चर्चा मैंने 'जैन धर्म का यापनीय संप्रदाय' नामक ग्रन्थ विषयवस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवीं शती के. के तीसरे अध्याय के प्रारंभ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ पूर्व की नहीं है।
देख सकते हैं। यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकत है तो फिर सम्पर्ण देश में वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से ईसा की तीसरी चौथी शती तक का एक भी अभिलेख शौरसेनी जानते हैं उनमें मुख्यतः निम्न ग्रन्थ आते हैं-- प्राकृत में क्यों नहीं मिलता है। अशोक के अभिलेख, खारवेल (अ) यापनीय आगम के अभिलेख, बलडी का अभिलेख और मथुरा के शताधिक भिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राक़त में नहीं है। इन सभी १. कषायपाहुड लगभग ईसा की चौथी शती. गणधर अभिलेखों की भाषा क्षेत्रिय बोलियों से प्रभावित मागधी ही है। २.षटखण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध, पृष्पदंत अतः उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, किन्तु शौरसेनी और भूतबली कदापि नहीं कहा जा स है। अतः प्राकृतों में अर्धमागधी ही ३. भगवतीआराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य प्राचीन है, क्योंकि मथुरा का प्राचीन अभिलेखों में भी 'नमो अरहंतानं', 'नमो वधमानस' आदि अर्धमागधी शब्द-रूप मिलते हैं। श्वेताम्बर
४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, वट्टकेर आगमों एवं अभिलेखों में आए 'अरहंतानं' पाठ को तो प्राकृतविद्या
ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मलतः यापनीय परंपरा के हैं में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है. इसका अर्थ है कि यह पाठ और इनमें अनेकों गाथाएँ श्वेताम्बर-मान्य आगमों, विशेष रूप शौरसेनी का नहीं है (प्राकृतविद्या, अक्टूबर-दिसंबर ९४, पृ. १०- से नियुक्तियों और प्रकीर्णकों के समरूप हैं। ११) अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है।
(ब) कुन्दकुन्द के ईसा की छठी शती के लगभग के ग्रन्थ शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता
५. समयसार जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से ६. नियमसार समझ लेना चाहिए कि आचारांग आदि द्वादशांगी जिन्हें श्वेताम्बर,
७. प्रवचनकार दिगंबर और यापनीय परंपरा आगम कहकर उल्लेखित करती
८. पंचास्तिकायसार हैं, वे सभी मूलत: अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परंपरा में नन्दीसूत्र में उल्लेखित आगम हो, चाहे मूलाचार, भगवती
९. अष्टपाहुड (इनका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना संदिग्ध आराधना और उनकी टीकाओं या तत्त्वार्थ और उसकी दिगंबर है, क्योंकि इनकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द-रूप भी हैं) टीकाओं में उल्लेखित आगम हो, अथवा अंगपण्णति एवं धवला (स) अन्य ग्रंथ-ईसा की छठी शती के पश्चात् के अंग और अंगबाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हों, उनमें से
१०. तिलोयपण्णति-यतिवृषभ एक भी ऐसा नहीं जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था। हाँ, इतना anoraridwaraniwaridrowdnodrianirdwordrobraridwoM[१०९Haririwaririramidsranirandirirdriraniraniranitariand
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