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- यतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य प्राकृतप्रकाश १२/२. इस सूत्र की व्याख्या में प्रकृति का जन्मदात्री, महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी आगम अर्धमागधी में यह अर्थ अस्वीकार कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने रूपान्तरित हुए, अत: ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना कर मात्र अग्रिम पृष्ठों में की है। इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कुतर्क करना कहाँ तक उचित है। कि यदि शौरसेनी प्राकृत ग्रंथों के आधार पर ही मागधी के
बुद्धवचनों की मूलभाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी - प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रंथ का उल्लेख क्यों नहीं है। श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी
शौरसेनी को मूलभाषा एवं मागधी से प्राचीन सिद्ध करने संदर्भ दिखा दें, जिसमें भगवती-आराधना, मूलाचार, षटखण्डागम, हेतु आदरणाय प्रा. नथमलजा टाटिय
हेतु आदरणीय प्रो. नथमलजी टाँटिया के नाम से यह भी प्रचारित तिलोयपण्णत्ति, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार आदि का ।
किया जा रहा है कि "शौरसेनी पालि भाषा की जननी है, यह उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि जी ने मात्र समयपाहुड मरा स्पष्ट चितन ह। पहल बाद्धा के ग्रथ शारसना म थ उनका का उल्लेख किया है, इसके विपरीत मूलाचार, भगवती-आराधना जला दिया गया और पालि में लिखा गया। प्राकृत विद्या.जलाईऔर षटखण्डागम की टीकाओं में एवं तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि. सितंबर ९६,पृ. १०। राजवार्तिक. श्लोकवार्तिक आदि सभी दिगंबर टीकाओं में इन टाँटियाजी जैसा बौद्धविद्या का प्रकाण्ड विद्वान ऐसी आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख हैं। भगवतीआराधना की कपोलकल्पित बात कैसे कह सकता है? यह विचारणीय है। टीका में तो आचारांग, उत्तराध्ययन, कल्प तथा निशीथ से अनेक क्या ऐसा कोई भी अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध अवतरण भी दिए हैं। मूलाचार में न केवल अर्धमागधी आगमों है? जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल बद्ध - का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी हैं। मूलाचार में वचन शौरसेनी में थे। यदि हो तो आदरणीय टॉटिया जी या भाई आवश्यकनियुक्ति, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, चंद्रवेध्यक, सुदीपजी उसे प्रस्तुत करें, अन्यथा ऐसी आधारहीन बातें करना उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने शौरसेनी विद्वानों के लिए शोभनीय नहीं है। शब्द-रूपों में यथावत् पाई जाती हैं।
यह बात तो बौद्ध विद्वान् स्वीकार करते हैं कि मूल बुद्ध - दिगंबर परंपरा में जो प्रतिक्रमणसूत्र उपलब्ध है, उसमें वचन मागधी में थे और कालान्तर में उनकी भाषा को संस्कारित ज्ञातसत्र के उन्हीं १९ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में करके पालि में लिखा गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस श्वेताम्बर परंपरा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा में उपलब्ध हैं। तार्किक प्रकार मागधी और अर्धमागधी में किंचित् अन्तर है, उसी प्रकार दृष्टि से यह स्पष्ट है कि जो ग्रंथ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख मागधी और पालि में भी किंचित अन्तर है, वस्तुत: तो पालि करता है, वह उनसे परवर्ती ही होता है। पूर्ववर्ती कदापि नहीं। भगवान् बुद्ध की मूलभाषा मागधी का एक संस्कारित रूप है, शौरसेनी आगम या आगमतुल्य ग्रन्थों में यदि अर्धमागधी आगमों यही कारण है कि कुछ विद्वान पालि को गागधी का ही एक के नाम मिलते हैं तो फिर शौरसेनी और उसका रचित साहित्य प्रकार मानते हैं. दोनों में बहत अधिक अंतर नहीं है। पालि. अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो सकता है?
संस्कृत और मागधी की मध्यवर्ती भाषा है या मागधी का ही आदरणीय टाँटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठाई साहित्यिक रूप है। यह तो प्रमाणसिद्ध है कि भगवान् बुद्ध ने गई है कि मलतः आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में मागधी में ही अपने उपदेश दिए थे, क्योंकि बौद्ध - ग्रन्थों का उनका अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्रीकरण) किया गया। यह एक स्पष्ट मन्तव्य है कि मागधी ही मूल भाषा है। इस संबंध में ऐतिहासिक सत्य है कि जैन धर्म का उद्भव मगध में हुआ और बुद्धघोष का निम्न कथन सबसे बड़ा प्रमाण है - वहीं से वह दक्षिणी एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला। अत: सा मागधी मूल भासा नरायाय आदिकप्पिका। आवश्यकता हुई अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी और महाराष्ट्री ब्रह्मणो च अस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे। रूपान्तरण की, न कि शौरसेनी आगमों के अर्धमागधी रूपान्तर .
अर्थात् मागधी ही मूलभाषा है जो सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न की। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी या हई और न केवल ब्रह्मा (देवता) अपितु बालक और बुद्ध भी
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