________________ जिनप्रतिमा और जैनाचार्य 81 भी-भावस्तवारूढ साधु को भी कायोत्सर्ग करने का निर्देश श्रीतीर्थकरादि ने किया है। पूजनसत्कार ये दोनों द्रव्यस्तब-द्रव्यपूजा रूप ही हैं। श्रीहरिभद्रसूरि अागमविरुद्ध या आगमबाह्य किसी भी बात को स्वीकार नहीं करते। जो श्राचार शास्त्र बिधिनिष्पन्न नहीं, वह अगर तीर्थोद्देशक भी हो तो भी प्राचार्य को वह मान्य नहीं। आप लिखते हैं 5" समितिपवित्तीसव्वा, आणावज्झ त्ति भवफला चेव" तित्थगरुद्देसेणवि ण तत्तत्रो सा तदुद्देसा” (पंचा. 8 / 13) भावार्थ-अपनी बुद्धिकल्पित, शास्त्राज्ञा से बाहर की जो भी प्रवृत्ति है वह सब भवफलाअर्थात् संसार की जन्ममरणपरम्परा को बढ़ानेवाली है, इस प्रकार की आज्ञाबाह्यप्रवृत्ति अगर तीर्थकरभक्ति मूलक भी हो तो भी वह स्वीकार करने योग्य नहीं, और वस्तुतः उसमें तीर्थकर भक्तिका उद्देश होता ही नहीं। इस उल्लेख से प्राचार्य हरिभद्रसूरि की अागमनिष्ठा का अनुमान बड़ी सुगमता से किया जा सकता है। वे अागमविरुद्ध किसी भी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हैं / इस पर से उनके ग्रन्थों में उपलब्ध होनेवाले पूजाविधायक उल्लेखों का आगममूलक होना भी अनायास ही प्रमाणित हो जाता है / वाचक श्रीउमास्वाति से लेकर श्रीहरिभद्रसूरि तक के प्राचार्यों ने जिन प्रतिमा के सम्बन्ध में जो विचार प्रदर्शित किये हैं उनका हमने अति संक्षेप से दिग्दर्शन करा दिया है / श्रीहरिभद्रसूरि ने तो इस विषय में बहुत कुछ लिखा है, जो कि विस्तार भय से यहां पर उल्लेख नहीं किया गया। जैन परम्परा के इन संभावित प्राचार्यों ने जिन प्रतिमा को जितना आदरणीय स्थान दिया है उसपर दृष्टिपात करते हुए जिनाप्रतिमा की शास्त्रीयता और पूज्यता में सन्देह को कोई अवकाश नहीं रहता // अगर वैसे विचार किया जावे तो भगवान महाबीर से लेकर बिक्रम की सोलवी प्राताब्दी से पूर्व तक जैन परम्परा में जितने भी विशिष्ट और साधारण आचार्य हुए हैं उनमे से किसीने भी जिनप्रतिमा के विरुद्ध कुछ लिखा हो ऐसा हमारे देखने में नहीं आया और विपरीत इसके परम्परा के सुप्रसिद्ध प्राचार्यों ने इसको कहां तक उपादेय बतलाया है यह ऊपर दिये गये उदाहरणों से स्पष्ट ही है। 1 स्वमतिप्रवृत्तिः सर्वा आशावाति भवफला चैव / तीर्थकरोद्देशेनापि न तत्त्वतः सा तदुद्देशा // PRONME / MES Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org