SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ गृहस्थ के प्रतिदिन के धार्मिक कर्तव्यों में प्राचार्य हरिभद्र ने इसे द्रव्यस्तब को मुख्य स्थान दिया है और मुमुक्षु गृहस्थ के लिये आगमोक्त विधि के अनुसार अप्रमत्त भाव से इसके अनुष्ठान का आदेश दिया है। इसके अतिरिक्त द्रव्यस्तब और भावस्तब-द्रव्यपूजा और भावपूजा ये दोनों एक दूसरे से अनुप्राणित हैं-परस्पर अनुस्यूत' हैं और साधु तथा गृहस्थ दोनों के लिये अनुष्ठेय हैं। जैसे द्रव्यपूजा के अनन्तर स्तुतिवन्दनरूप भावपूजा गृहस्थ करता है उसी प्रकार भावस्तब के अधिकारी साधु को भी अनुमोदना रूप में द्रव्स्तब के अनुष्ठान का अधिकार है। अर्थात् गृहस्थ के द्वारा आचरित द्रव्यस्तब-द्रव्यपूजा की अनुमोदना साधु के लिये इष्ट अथ च विहित है। इस कथन से पूजाविधि को श्रीहरिभद्रसूरि के वचनों में जो शास्त्रीय महत्त्व प्राप्त होता है उसकी कल्पना सहज ही में की जा सकती है। साधु के लिये अनमोदन रूप से द्रव्यस्तब का विधान करते हुए श्रीहरिभद्रसूरि ने उसका शास्त्रीय समर्थन इस प्रकार किया है तंतम्मि वंदणाए पूयणसक्कारहेउ उस्सग्गो। जतिणो विहु णिद्दिठो, ते पुणदव्वत्थयसरूवे॥ प्राचार्य कहते हैं कि चैत्यवन्दन नाम के शास्त्र में अर्थात् अावश्यक सूत्रगत ४“सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सगं वंदणबत्तियाए पूयण-वत्तियाए सकारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए " इत्यादि पाठ से अर्हच्चैत्यों के पूजन और सत्कार के निमित्त-तीर्थकर प्रतिमाओं की पूजा और सत्कृति के लिये यति को त्वात्। कि बिधेनेत्याह निर्वाणं निर्वृत्तिमिच्छता, निर्वाणव्यतिरिक्तस्य फलस्योपायान्तरेणापि सुलभवात्। तस्माद्धेतो: जिनानामहतां पूजा-अर्चनं कर्तव्या-विधेया अप्रमत्तेन-अप्रमादवता प्रमादपरिहारेणेति यावत् । (अभयदेवसूरि) भावार्थ-निर्वाण की इच्छा रखनवाले गृहस्थ को प्रमाद का परित्याग करके सूत्रोक्त विधि के अनुसार जिनेन्द्रदेवों का पूजन अर्चन करना चाहिये। यहां पर सूत्रोक्तबिधि से, सम्भवत: राजप्रश्नीय सूत्रोक्त पूजाबिधि ही अभिप्रेत होनी चाहिये, कारण कि वहीं पर ही विशेष रूप से पूजा विधि का प्रकार वर्णित हुआ है। १. दव्वत्थयभावत्थयरूवं एयमिय होति दट्ठव्वं । अण्णोण्णसमणुबिद्धं णिच्छयतो भणिय विसयंतु॥ (पंचा. ६।२७) २. "जइणो वि हु दव्वत्थयभेदो अणुमोयणेण अत्थि ति। एवं च एत्य णेयं इय सुद्धं तंतजुत्तीए" (पंचा. ६।२८) ( छा. यतेरपि खलु द्रव्यस्तवभेदः अनुमोदनेन अस्ति इति । एतच्च अत्र शेयं अनया शुद्धं तंत्रयुक्त्या ।) अर्थात्-भावस्तब में आरूढ होनेवाले साधु को भी अनुमोदन रूप से द्रव्यस्तव का अधिकार शास्त्रसम्मत है--(यतेरपि भावस्तवारूढसाधोरपि, न केवलं गृहिण एव, द्रव्यस्तवभेदो-द्रव्यस्तवविशेषः, अनुमोदनेनजिनपूजादिदर्शनजनितप्रमोदप्रशंसादिलक्षणयाऽनुमत्या, अस्ति-विद्यतेxxxतंत्रयुक्त्या-शास्त्रगर्भोपपत्त्या" (श्री अभयदेवसूरि) ३. तंत्रे बन्दनायां पूजनसत्कारहेतुरुत्सर्गः। यतेरपि खलु निर्दिष्टः तौ पुनः द्रव्यस्तवस्वरूपौ ॥ ६।२६ ।। ४. सर्वलोके अहं चैत्यानां करोमि कायोत्सर्ग वन्दनप्रत्ययं, पूजनप्रत्ययं सत्कारप्रत्ययं संमानप्रत्ययम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210534
Book TitleJina pratima aur Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherZ_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf
Publication Year1956
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirth
File Size505 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy