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जिनप्रतिमा और जैनाचार्य
७६ विविध तीर्थकल्प में " तन्मध्ये श्रीनेमिचैत्यं राज्ञाकारि" (अर्थात् राजा उदायी ने पाटलीपुत्र नगर के मध्य में श्री नेमिनाथ का चैत्य बनाया) इन शब्दों में किया है (पाटलीपुत्र कल्प पृ. ६८) श्रीहरिभद्रसूरिजैनपरम्परा में श्री हरिभद्रसूरि का स्थान बहुत ऊंचा है, उन्होंने जैन परम्परा के धार्मिक साहित्य में जिस अलौकिक दिव्य जीवन का संचार किया है वह एक मात्र उन्ही को अाभारी है। इनके ग्रन्थों में जो मध्यस्थता, गम्भीरता और सत्यप्रियता दृष्टिगोचर होती है वह अन्यत्र कदाचित् ही दिखाई पड़ती है। उनके व्यक्तित्व में रही हुई अलौकिक ज्ञान विभूति से प्रभावित हुए तदुत्तरवर्ति श्राचार्यों ने-श्री सिद्धर्षि, श्रीजिनेश्वरसूरि, श्रीवादिदेवसृरि, श्रीलक्ष्मणगणि प्राचार्य, श्री मलयगिरि, श्री प्रद्युम्नसूरि उपाध्याय, श्री यशोविजयजी आदि विशिष्ट विद्वानों ने इनके विषय में श्रद्धापूरित हृदय से जो भक्तिभाव प्रकट किया है, उसको देखते हुए तो उनके बचनों पर हमारा विश्वास और भो सुदृढ हो जाता है। अस्तु अब हम पूज्य हरिभद्रसूरि के प्रस्तुत
विषय से सम्बन्ध रखने वाले विचारों का अतिसंक्षेप से दिग्दर्शन कराते हैं। पूज्य हरिभद्रसूरि ने अपने सद्ग्रन्थों में द्रव्यस्वव और भावरतव अर्थात् द्रव्य और भावरूप से प्रतिमा पूजन को पुष्कल स्थान दिया है वे स्तवबिधि-पूजाविधि को श्रागम्शुद्ध और विहितानुष्ठान' मानते हैं यह स्तब-पूजा द्रव्य और भाव भेद से दो प्रकार का है। द्रव्यस्तब और भावस्तब। इसीका दूसरा नाम द्रव्यपूजा
और भावपूजा है। इनमें द्रव्य पूजा का अधिकारी गृहस्थ है और भाव पूजा का अधिकार साधु को है। परन्तु सूत्रोक्त बिधि के अनुसार अनुष्ठान किया गया यह द्रव्यरतब भावस्तब का कारण होता है। अतः १. विषं विनिर्धूय कुवासनामयं, व्यचीचरय: कृपया मदाशये।
अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधा नमोस्तु तस्मै इरिभद्रसूरये ॥ [उपमितिभवप्रपंच पृ. १६] येषां गिरं समुपजीव्य सुसिद्धविद्यामस्मिन् सुखेन गहनेऽपि पथि प्रवृत्तः । ते सूरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः श्रीसिद्धसेनहरिभद्रमुखाः सुखाय (शास्त्रवातासमु. टीका)
अन्य प्राचार्यों के उल्लेख विस्तारभय से नहीं दिये गये। २. "थयविहिमागमसुद्धं" (पंचाशक ६।१)
स्तवः पूजा तस्य विधिविधानं प्रकाराः स्तवविधिस्तम् । आगमः स्तवपरिशानार्थ प्राप्तवचनं तेन शुद्धस्तदुक्तानुवादन निर्दोषः आगमशुद्धस्तम् (अभयदेवसूरि)
अर्थात् पूजाविधि यह आप्तवचन के अनुसार होने से निर्दोष है। ३. तत्तो पडिदिणपूयाविहाणओ तह तहेव कायब्बं । विहिताणुट्ठाणं खलु भवविरहफलं जहा होति ।। (पंचा. ८।५०) (ततः प्रतिदिनं पूजाविधानतः तथा तथा इह कर्तव्यम् । विहितानुष्टानं खलु भवविरहफलं यथा भवति ॥)
विहितानुष्ठानं-पूजावन्दनयात्रास्नानादि। (अभयदेवसूरि ) ४. सुत्तभणिएण विहिणा गिहिणा निव्वाणमिच्छमाणेन ।
तम्हा जिणाण पूया कायव्वा अप्पमत्तेण ॥ (पंचा. ४/४६) व्या. सूत्रभणितेन-आगमोक्तेन विधिना-विधानेन पूजा कर्तव्या केनेत्याह-गृहिणा-गृहस्थेन साधोरनधिकार
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