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जिनप्रतिमा और जैनाचार्य
पं० श्रीहंसराजजी शास्त्री
"परस्पराधीतविलोमपाठा सा भारती सा कमलालया च।
निसर्गदुर्बोधपदार्थविज्ञा, स्वां स्वां विभूतिं तनुतां मयीष्टाम्॥" जैन परम्परा में चैत्य शब्द के शिष्टसम्मत प्राचीन मौलिक अर्थ में प्रतिबिम्बित होनेवाली जिन प्रतिमा को जैनागमों में कहां और किस प्रकार से विधेयता प्राप्त है यह एक अलग विषय है। इस विषय के विचार को किसी और समय के लिये सुरक्षित रखते हुए, इस वक्त तो हम यह देखने का यत्न करेंगे कि जैनपरम्परा के विशिष्ट श्रुतसम्पन्न युगप्रधान प्राचार्यों का इस विषय में क्या मत है।
इस सम्बध में जहां तक हमारा पर्यालोचन है, हमें तो इनके रचे हुए ग्रन्थों में जिन प्रतिमा का समर्थन अधिक स्पष्ट और असंदिग्ध शब्दों में किया हुआ दृष्टिगोचर होता है। यह बात उनके रचे हुए ग्रन्थों के कतिपय निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जाती है
प्रशमरति' प्रकरण-वाचक उमास्वातिने प्रशमरति के २२ वें अधिकरण में गृहस्थ के धार्मिक कर्तव्यों के वर्णन प्रस्ताव में लिखा है
१. (क) यह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता वाचक उमास्वाति की अन्य प्रौढरचनाओं में से एक है और इसके उमास्वातिरचित होने में निम्नलिखित प्रमाण है--
"पसमरइपमुहपयरण पंचसया सक्कया जेहिं । पुबगय वायगाणं, तेसिमुमासाइनामाणं " [गणवर सा. श. गा. ५-श्रीजिनदत्तसू.] अर्थात् प्रशमरति प्रमुख पांच सौ ग्रन्थों की रचना करने वाले वाचक उमास्वातिको-- (ख) प्रशमस्थेन येनेयं कृता वैराग्यपद्धतिः । तस्मै वाचकमुख्याय नमो भूतार्थभाषिणे।
अर्थात् जिसने इस वैराग्य पद्धति (प्रशमरति) का निर्माण किया है ऐसे प्रशांत और यथार्थवादी वाचकमुख्य (उमास्वाती) को मैं नमस्कार करता हूं।
(ग) तत्त्वार्थभाष्य के वृत्तिकार श्रीसिद्धसेन प्रशमरति को भाष्यकार की ही कृति सूचित करते हैं। यथा" यतः प्रशमरतौ (का. २०८) अनेनैवोक्तं परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजन्ति यः ।" वाचकमुख्येन त्वेतदेव बलसंशयाप्रशमरतौ (का. ८) उपात्तम् [५।६ तधा हा की भाष्यवृत्ति:] xxx प्रशमरति की १२० वीं कारिका"आचार्य आह" कहकर निशीथचूर्णि में उद्धृत की गई है। इस चूर्णि के प्रणेता श्री जिनदास महत्तर का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है जो कि उन्होंने अपनी नन्दीसूत्र की चूर्णि में बतलाया है । इस पर से ऐसा कह सकते हैं कि प्रशमरति विशेष प्राचीन है। इस से और ऊपर बतलाये गये कारणों से यह कृति, वाचक की ही हो तो इस में कोई इनकार नहीं" [पं. श्रीसुखलालजीशास्त्री-तत्त्वार्थपरिचय ५०१७ का नोट ].
(घ) श्री हरिभद्रसूरि ने भी प्रशमरति को वाचक उमास्वाति की रचना माना है तथा-"यथोक्तमनेनैव सूरिणा प्रकरणान्तरे" ऐसा कहकर श्रीहरिभद्रसरि, भाष्यटीका में प्रशमरति की २१० वी और दोसौं ग्यारहवीं कारिका उद्धृत करते हैं [तत्त्वार्थपरिचय ८०३१ का नोट ]
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