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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ चैत्यायतनप्रस्थापनानि कृत्वा च भक्तितः प्रयतः ।
पूजाश्च गन्धमाल्याधिवासधूपप्रदीपाद्याः ॥३०५॥ अर्थात्-सम्यग् दृष्टिगृहस्थ अपनी शक्ति के अनुसार श्रद्धापूर्वक चैत्य-जिन-प्रतिमा को श्रायतन-मन्दिर में प्रतिष्ठित करके उनका गन्धपुष्पधूपदीप आदि सामग्री के द्वारा पूजन करे।
प्रशमरति की इस कारिका में वाचक उमास्वाति ने चैत्य शब्द, प्रतिमा के ही अर्थ में प्रयुक्त किया है और "अायतन" का मन्दिर अर्थ तो स्फुट ही है। तात्पर्य कि इस स्थान में प्रयुक्त हए चैत्य शब्द का जिन बिम्ब-जिनप्रतिमा के सिवा दूसरा कोई अर्थ सम्भव ही नहीं हो सकता। इस कथन से हमें यह दिखलाना अभिप्रेत है कि वाचक उमास्वाति जैसे पूर्ववित् भी चैत्य का मूर्ति ही अर्थ करते और समझते हैं। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थभाष्य की प्रारम्भिक सम्बन्धकारिकाओं में उल्लेख की गई निम्नलिखित आठवीं कारिका भी द्रष्टव्य है। प्राचार्य कहते हैं
" अभ्यर्चनादहतो मनःप्रसादस्तथा समाधिश्च ।
तस्मादपि निःश्रेयस-मतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् ॥” अर्थात्-अर्हन्तों-तीर्थकरों के पूजन से रागद्वेषादि दुर्भाव दूर होकर चित्त-प्रसन्न होता है-निर्मल बनता है। और मन के प्रसन्न निर्विकार होने से समाधि ध्यान में एकाग्रता प्राप्त होती है । एवं समाधि की प्राप्ति से कर्मों की निर्जरा द्वारा मोक्षपद की उपलब्धि होती है । अतः तीर्थकारों का पूजन करना सर्वथा न्यायोचित है।
इस उल्लेख में वाचक उमास्वाति ने द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार की पूजा का निर्देश किया है जिसमें प्रारम्भ प्रसक्त गृहस्थों के लिये द्रव्य पूजा और प्रारम्भ के त्यागी मुनियों के लिये भाव पूजा है। इसीको द्रव्यस्तव और भावस्तव के नाम से अन्यत्र उल्लेख किया है।'
पउमचरियं-श्रीविमलसूरिविरचित पउमचरिय (पद्मचरित्र)-जो कि विक्रम की प्रथम शताब्दी में रचा गया माना जाता है-में लिखा है कि
इस के अलावा प्रशमरति पर श्रीहरिभद्रसूरि ने स्वयं व्याख्या लिखी है । यथा-श्रीहरिभद्राचार्यरचितं प्रशमरतिविवरणं किंचित् परिभाव्य बद्धटीका: सुखबोधार्थ समासेन" [प्रशमरति की प्रस्तावना जैन० प्र० स० भावनगर ] इत्यादि प्रमाणों से प्रशमरतिप्रकरण वाचक उमास्वाति की ही कृति निश्चित होता है। उनका [वाचक उमास्वाति का] समय यद्यपि अभी तक अनिश्चित ही है तो भी वे विक्रम की पहली दूसरी शताब्दी से अर्वाचीन तो नहीं हैं।
२. चैत्यं चितयः प्रतिमा इत्येकार्थाः, तेषामायतनमाश्रयः चैत्यायतनानि। प्रकृष्टानि स्थापनानि प्रस्थापनानि, महत्याविभूत्या वादित्रनृत्यतालानुचरस्वजनपरिवारादिकया प्रस्थापनं प्रतिष्ठेति, तानि कृत्वा शक्तितः प्रयत्नवान् यथा प्रवचनोभावनं भवति तथा कृत्वेति। पूजा सपर्या, गन्धो विशिष्टद्रव्यसम्बन्धि, माल्यं पुष्पं, अधिवास: पटवस्त्रादि, धूपः सुरभिद्रव्यसंयोगजः, प्रदीपः प्रदीपदानं, आदि ग्रहणादुपलेपन-संमार्जन-खंडस्फुटित-संस्करण-चित्रकर्माणि चेति। [कारिका पृ. ८३]
३. इसके लिये देखो आवश्यकनियुक्ति और भाष्य तथा पूज्य हरिभद्रसूरिजी का निम्न उल्लेख-- दम्वत्थय भावत्थयरूवं एयमिय होत्ति दट्ठन्वं । अण्णोण्णसमनुविद्धं णिच्छयतो भणिय विसयंतु ॥ पंचा. ६। २७ ।। ४. पंचेव सय वाससया, दुसमाए वीसवरसंसजुत्ता।
वीरे सिद्धिमुपागये तो निबद्धं इमं चरियं ॥ पृ० ३६५ ॥ अर्थात जब वीर निवाण को ५३० बर्ष हो चुके थे (वि. सं. ६० में) तब इस चरित्र की रचना की गई।
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