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छेदसूत्र : एक अनुशीलन
आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व इन दो भागों में मिलता है। आर्यरक्षित ने आगम साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया। वे विभाग ये हैं - १. चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग ।' आगमसंकलन के समय आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया - अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य । नंदी में आगमों का विभाग काल की दृष्टि से भी किया गया है। प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम 'कालिक' तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम 'उल्कालिक' कहलाते हैं। सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगम के चार विभाग मिलते हैं - अंग, उपांग, मूल एवं छेद । वर्तमान में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है।
छेदसूत्रों का महत्त्व
जैन धर्म ने आचारशुद्धि पर बहुत बल दिया। आचारपालन में उन्होंने इतना सूक्ष्म निरूपण किया कि स्वप्न में भी यदि हिंसा या असत्यभाषण हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त करना चाहिए। आगमों में प्रकीर्ण रूप से साध्वाचार का वर्णन मिलता है। समय के अंतराल में साध्वाचार के विधि - निषेध - परक ग्रन्थों की स्वतंत्र अपेक्षा महसूस की जाने लगी । द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अनुसार आचार संबंधी नियमों में भी परिवर्तन आने लगा। परिस्थिति के अनुसार कुछ वैकल्पिक नियम भी बनाए गए, जिन्हें अपवादमार्ग कहा गया।
छेदसूत्रों में साधु की विविध आचार संहिताएँ तथा प्रसंगवश अपवाद मार्ग आदि का विधान है। ये सूत्र साधु - जीवन का संविधान ही प्रस्तुत नहीं करते, किन्तु प्रमादवश स्खलना होने पर दण्ड का विधान भी करते हैं। इन्हें लौकिक भाषा में दण्ड संहिता तथा अध्यात्म की भाषा में प्रायश्चित्त सूत्र कहा जा सकता है।
छेदसूत्रों में प्रयुक्त 'कप्पर' शब्द से मुनि के लिए करणीय आचार तथा 'नो कप्पर' से अकरणीय या निषिद्ध आचार का ज्ञान होता है। बौद्ध-परम्परा में आचार, अनुशासन एवं प्रायश्चि संबंधी विकीर्ण वर्णन विनय पिटक में तथा वैदिक परम्परा में सूत्र एवं स्मृतिग्रन्थों में मिलता है।
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मुनि दुलहराज......
छेदसूत्रों में निशीथ अधिक प्रतिष्ठित हुआ है। व्यवहारभाष्य के पाँचवे - छठे उद्देशक में निशीथ की महत्ता में अनेक तथ्य प्रतिपादित हैं।
व्यवहारभाष्य में आगामों के सूत्र और अर्थ की बलवत्ता विमर्श में सूत्र के अर्थ को बलवान् माना है । उसी प्रसंग में अन्यान्य आगमों के अर्थ के संदर्भ में छेदसूत्रों के अर्थ को बलवत्तर माना है। इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चारित्र में स्खलना होने पर या दोष लगने पर छेदसूत्रों के आधार पर विशुद्धि होती है, अतः पूर्वगत को छोड़कर अर्थ की दृष्टि से अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र बलवत्तर हैं।
निशीथभाष्य में छेद - सूत्रों को उत्तमश्रुत कहा है। निशीथचूर्णिकार कहते हैं कि इनमें प्रायश्चित्त-विधि का वर्णन है, इनसे चारित्र की विशोधि होती है इसलिए छेदसूत्र उत्तमश्रुत है।
छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं।" उनको आलोचना करने का अधिकार है। छेदसूत्रों के व्याख्याग्रन्थों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है।
छेदसूत्र रहस्य- सूत्र है । योनिप्राभृत आदि ग्रंथों की भाँति इनकी गोपनीयता का निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं दी जाती थी । निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। कि जहाँ मृग (बाल, अज्ञानी एवं अगीतार्थ) साधु बैठे हों, वहाँ इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए।" लेकिन सूत्र का विच्छेद न हो इस दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के आधार पर अपात्र को भी वाचना दी जा सकती है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है। "
पंचकल्पभाष्य के अनुसार छेदसूत्रों की वाचना केवल परिणामक शिष्य को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं अपरिणामक को नहीं । " अपरिणामक आदि शिष्यों को छेदसूत्रों की वाचना देने से वे उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं, जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े या अम्लरसयुक्त घड़े में दूध नष्ट हो जाता है । १० गीतार्थ - बहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त में अभिशय्या
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