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– यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - अपनी साधना के दीर्घकाल में उन्होंने अनेक भीषण उपसर्गों महावीरस्स भज्जा जसोया कोडिण्णागोत्तेणं (आचारचूला (विघ्नों)का वीरता से सामना किया और कभी अपने लक्ष्य से १५.२२)। उनके प्रियदर्शना नाम की एक कन्या हुई, जिसका विचलित नहीं हुए। इसलिए वे वीर और महावीर की संज्ञा में विवाह उनकी बड़ी बहन सुदर्शना के पुत्र, भानजे जमाली के अभिहित हुए। आत्मा बहुत दुर्दम होता है (अप्पा हु खलु दुद्दमो- साथ हुआ। महावीर के शेषवर्ती (अपरनाम यशस्वती) नाम की उत्तराध्ययन सूत्र)। उसे कोई महान वीर ही अपने वश में कर दौहित्री (नातिन) हुई। सकता है। दुर्दम आत्मा को आत्माधीन करने के कारण ही उन्हें महावीर अट्राईस वर्ष की अवस्था में मातपितविहीन हो महावीर की सार्थक आख्या प्राप्त हुई। अवश्य ही वे आत्मजयी गये। उन्होंने तत्काल श्रमण बनने की इच्छा जाहिर की पर अपने तीर्थंकर थे। उनके उक्त सभी नामों में महावीर नाम ही पहले अग्रज नन्दिवर्द्धन के आग्रह पर रुक गये। अन्ततः तीसवें वर्ष में जनजिह्वा पर, बाद में इतिहास के पृष्ठों में अंकित हुआ। राजा उन्होंने महाभिनिष्क्रमण किया। वे अमृतत्व की साधना के लिए सिद्धार्थ काश्यपगोत्रीय क्षत्रिय थे। पिता के गोत्रानुसार ही महावीर निकल गये। मक्ति उनके जीवन का साध्य बन गयी। आत्मिक भी काश्यपगोत्रीय क्षत्रिय के गौरव बने।
शांति और वैचारिक क्रांति की मनोभावना के साथ उन्होंने बारह बालक्रीड़ा की अवधि में महावीर ने अपनी अनेक अद्भुत वर्षों से भी अधिक दिनों तक कठिन तपस्वी-जीवन बिताया जो बाललीलाओं से अपने को अपूर्व वीर बालक प्रमाणित किया आपने आप में एक बेमिसाल इतिहास है। एक वीतराग राजकुमार
और यह सिद्ध किया कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात। का वैराग्य श्रृंगार और शांत के संघर्ष में शान्त के, याकि हलाहल जैनागमम की मान्यता के अनुसार तीर्थंकर गर्भकाल से ही अवधिज्ञानी और अमृत के संघर्ष में अमृत के विजय की अमरगाथा बन गया। (भूत-भविष्य-वर्तमान के जानकर त्रिकालदर्शी) होते हैं। महावीर साधना की सिद्धि के बाद महावीर भगवान हो गये। भगवान भी अवधिज्ञानी थे। अध्यापक उन्हें जो पढ़ाना चाहता था वह की परिभाषा में कहा गया है - उनके लिए पूर्वज्ञात था। अन्त में अध्यापक को कहना पड़ा- 'आप
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये। स्वयंसिद्ध हैं। आपको पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। भगवान बुद्ध
बन्धं मोक्षं च यो वेत्ति स वाच्यो भगवानिति। के ज्ञान की, विशेषतः गणितज्ञान की अपारता देख उनके आचार्य
अर्थात् मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्त्तव्याकर्त्तव्य अर्जुन गणक महामात्य ने भी उनसे प्रायः यही कहा था -
को, भय से मुक्त होकर निर्भयता प्राप्त करने के उपाय को और ईदृशी ह्यस्य प्रज्ञेयं बुद्धिर्ज्ञानं स्मृतिर्मतिः
फिर बन्ध तथा मोक्ष को जो जानता है, उसे ही भगवान् कहते हैं। अद्यापि शिक्षते चायं गणितं ज्ञानसागरः। (ललितविस्तर)
कहना न होगा कि महावीर ने अपनी तपस्साधना से उक्त द्वंद्वों अर्थात् ज्ञान के समुद्रस्वरूप इनकी (बुद्ध की) विस्मय- को सम्यक रूप से जान लिया था, इसलिए उन्हें भगवान कहा कारिणी प्रज्ञा, बुद्धि, ज्ञान, स्मृति (स्मरणशक्ति) और मति जाने लगा। भगवान महावीर ने परम्परागत अहिंसा-धर्म को (मननशक्ति) है, फिर भी आज इन्हें गणित सिखाया जा रहा है, सामाजिक संदर्भ में सर्वथा नये ढंग से परिभाषित किया और यह आश्चर्य ही है। युवा होने पर महावीर का विवाह हुआ। सहज उसे जनजीवन की नैत्यिक जीवनधारा से जोडा। उन्होंने अहिंसाव्रत विरक्ति के कारण विवाहेच्छा न रहने पर भी माता-पिता के को इसी के अन्य चार रूप-परिणामों-सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अरमान और आग्रह को मूल्य देने के लिए उन्होंने विवाह किया। और अपरिग्रह से सम्बद्धकर पाँच व्रतों के रूप में उपस्थित किया। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार, महावीर ने विवाह प्रस्ताव-को भगवान महावीर द्वारा प्रवर्तित धर्म में हित है, अहित नहीं है। यथार्थवाद ठुकराकर अविवाहित रहना स्वीकार किया था। श्वेताम्बर-परम्परा है, अर्थवाद नहीं है (विशेष दृष्टव्य : मनन और मीमांसा, मुनिनथमल के अनुसार महावीर ने स्वदारसन्तोषित्व रूप ब्रह्मचर्य का पालन युवाचार्य महाप्रज्ञ)। श्रमण, ब्राह्मण, गृहस्थ या श्रावक और किया था। परवर्ती काल में स्वदारसन्तोषित्वं ब्रह्मचर्य सूत्र ही अन्यान्य दार्शनिक महावीर के इस धर्मसिद्धांत को कुतूहल के। 'एकनारी ब्रह्मचारी' कहावत के रूप में लोकप्रतिष्ठ हो गया। साथ सनने-अपनाने लगे। महावीर के धर्म-दर्शन के सिद्धांत
श्वेताम्बर-साहित्य के अनुसार महावीर का विवाह कौण्डिन्य अधिकतर उनके पट्टधर शिष्य सुधर्मास्वामी और उनके शिष्य -गोत्रीय क्षत्रियकन्या यशोदा से हुआ था, समणस्स णं भगवओ अंतिम केवली जम्बूस्वामी के प्रश्नोत्तर के रूप में निबद्ध हए हैं। tidndidadridadddddddresariwaririrani६ १/6droidminiidndidaidaddurindiamsimilarsvarodity
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