________________ श्री कृष्ण का वासुदेवत्व : जैन दृष्टि 157 ने यह विरुद धारण किया अतः वे वासुदेव भी कहलाये / यह बात निरी सम्भावना नहीं है / इसके प्रमाण निम्न उल्लेखों में देखे जा सकते हैं : (अ) हरिवंश पुराण (भविष्य पर्व) में काशीराज पौंड्रक का कथानक आता है। इसके अनुसार जब श्रीकृष्ण कैलाश पर तपस्या कर रहे थे, तब पौंड्रक ने अपने साथी राजाओं को बुलाकर एक सभा की और उसमें घोषणा की, "कृष्ण, छल और घमण्ड से मेरी बराबरी कर रहा है / मैंने अपना नाम वासुदेव रखा है, इसलिए उसने भी अपना नाम वासुदेव रख लिया है। मेरे पास जो अस्त्र-शस्त्र हैं, वैसे ही नाम वाले अस्त्र-शस्त्र उसने भी धारण करना प्रारम्भ कर दिया है।" इस घोषणा के पश्चात अपने अधीनस्थ राजाओं को लेकर उसने द्वारका पर आक्रमण कर दिया। इस कथानक से यह स्पष्ट आभास होता है कि कृष्ण और पौंड्रक का संघर्ष मूलत: वासुदेव नाम धारण करने को लेकर हुआ। (ब) जैन-मान्यता की बात ऊपर कही जा चुकी है। जैन-कथा के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारका सहित / दक्षिण भारत के प्रभावशाली अधिपति थे। उत्तर भारत में जरासन्ध उनकी टक्कर का राजा था। इसलिए श्रीकृष्ण व जरासन्ध की प्रतिद्वन्द्विता ने उग्र रूप धारण कर लिया। मूल जैन-स्रोतों के अनुसार तो महाभारत का युद्ध श्रीकृष्ण व जरासन्ध के मध्य लड़ा गया / कौरव-पाण्डवों ने विपरीत पक्षों से इसमें भाग लिया। इस युद्ध की समाप्ति श्रीकृष्ण द्वारा जरासन्ध-वध से होती है। इस अवसर पर देवताओं द्वारा श्रीकृष्ण का 'वासुदेव' रूप में अभिनन्दन करने तथा पुष्पवृष्टि करने का वर्णन जैन-पुराणों में हुआ है। इसी युद्ध के परिणामस्वरूप श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के पूत्र सहदेव को मगध के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया और इस प्रकार उत्तर भारत में भी अपने प्रभाव का प्रसार किया। ध्यान देने की बात है कि जैनपरम्परा में जरासन्ध को प्रतिवासुदेव कहा गया है, परन्तु शक्ति, पराक्रम व प्रभाव में दोनों को समान कहा गया है / इस विवरण से भी यही ध्वनित होता है कि कृष्ण-जरासन्ध की प्रतिद्वन्द्विता का आधार 'वासुदेवत्व' था, तभी तो कृष्ण की विजय पर उनके वासुदेव रूप में अभिनन्दित होने की बात कही गई है। (स) घत जातक के अनुसार यह स्पष्ट है कि बौद्धों ने भी श्रीकृष्ण के लिए वासुदेव नाम ही प्रयुक्त किया है / बौद्ध-कथा में भी वासुदेव की शक्ति व पराक्रम का ही वर्णन है। कंस को मारकर उन्होंने अयोध्या के राजा को जीता और इस प्रकार अपनी शक्ति बढ़ाते हुए द्वारका जाकर अपनी राजधानी स्थापित की। इस उल्लेख से भी 'वासुदेव' के श्रेष्ठ व शक्तिशाली राजा के स्वरूप का बोध होता है। ___ इससे यही निष्कर्ष पुष्ट होता है कि अपने वास्तविक ऐतिहासिक रूप में देवकी-वसुदेव के पुत्र, यादव-कुल-शिरोमणि, वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण, द्वारका के शक्तिशाली अधिपति व एक प्रभावशाली राजा थे। उनके देवाधिदेव रूप में प्रतिष्ठित हो जाने पर कालान्तर में जो उनके साथ अनेक प्रकार की लीलाओं आदि की बातें जुड़ गई हैं, उनका श्रीकृष्ण के महान चरित्र से वस्तुत: कोई सम्बन्ध नहीं। अपने मूल रूप में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण एक अलौकिक वीर पुरुष हैं और यही सम्भावना है कि उनकी वीर-पूजा को ही सर्वप्रथम प्रतिष्ठा मिली / जैन-साहित्य में उनकी वीर-पूजा को ही स्थान मिला है। चूंकि जैन-दर्शन किसी परम सत्ता (परमात्मा) के अस्तित्व को स्वीकार भी नहीं करता है, अतः उसके अवतार रूप में या स्वयं उसी के रूप में श्रीकृष्ण की प्रतिष्ठा जैन-साहित्य में सम्भव भी नहीं थी। AKAA EHUL A ह KMUHEभाचार्यप्रवचन श्राआनन्दआठप प्रा6292 Marwana Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org