Book Title: Krushna ka Vasudevatva Jain Drushti Author(s): Mahavir Kotiya Publisher: Z_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf View full book textPage 1
________________ 0 श्री महावीर कोटिया, जयपुर [विचारक, लेखक श्री कृष्ण का वासुदेवत्व : जैन दृष्टि भारतीय-साहित्य में श्री कृष्ण के विशिष्ट स्वरूप का परिचय देने वाला ग्रन्थ 'महाभारत' है। महाभारत के श्री कृष्ण स्वयं भगवान विष्णु हैं, जिन्होंने संसार के कल्याणार्थ देवकी-वसुदेव के यहाँ जन्म लिया है। वे भगवान समस्त सृष्टि के उपादान कारण हैं, अखिल विश्व-सभी चराचर-के सर्जक हैं, अव्यक्त हैं, अविनाशी हैं और सबके पूज्यतम हैं। भीष्मपर्वान्तर्गत गीता में स्वयं उनसे कहवाया गया है-"मैं सभी प्राणियों का स्वामी और अजन्मा हैं। मेरे स्वरूप में कभी व्यय अथवा विकार नहीं होता, तथापि अपनी ही प्रकृति में अधिष्ठित होकर मैं अपनी ही माया से जन्म लिया करता हूँ।"3 महाभारतकार ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही 'नारायणं नमस्कृत्य नरचैव नरोत्तमम्' तथा 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्रों का विधान कर उन भगवान नारायण, वासुदेव को नमस्कार किया है । इस प्रकार महाभारत में विष्णु के अवतार, देवकी-वसुदेव के पुत्र श्री कृष्ण स्वयं भगवान वासुदेव हैं, नारायण हैं ! वस्तुतः महाभारत में श्री कृष्ण वासुदेव तथा नारायण पर्यायवाची हैं। जैन-परम्परा में भी श्री कृष्ण, वासुदेव हैं, नारायण हैं ! जैन-साहित्य में जिन श्रेषठ-शलाकापुरुषों के चरित वर्णन की प्रधानता है, उसमें श्री कृष्ण, शलाका पुरुष वासुदेव (नारायण) हैं ! उनके वासूदेव रूप का ही जैन-साहित्य में वर्णन है। तदनुसार उनके विशिष्ट स्वरूप की विशेषताएं जैनसाहित्य में निम्न प्रकार हैं : (१) वे असाधारण वीर व पराक्रम सम्पन्न हैं। उनके विभिन्न वीरतापूर्ण व साहसिक कार्यों से बाल्यावस्था से ही उनके असाधारण व्यक्तित्व का परिचय मिलने लगता है। (१) अनुग्रहार्थं लोकानां विष्णुर्लोक नमस्कृतः। वासुदेवात तु देवक्यां प्रादुर्भूतो महायशाः ।।-आदिपर्व ६३६६ (२) कृष्ण एव ही लोकानामुत्पत्तिरपि चाव्ययः । कृष्णस्य ही कृते विश्वमिदं भूतं चराचरम् ।। एव प्रकृतिरव्यक्ता कर्ताचैव सनातनः । परश्च सर्वभूतेभ्यस्तस्मात् पूज्यतमाऽच्युतः ।।-सभा पर्व ३८।२३-२४ (३) गीता ४।६ musanmaaamwwwAAKARINAAMANAMANIMAainaariMALINGAMunmaarnamaAMINAAMIRASAINManoos NIMA RATNयार्गव श्रीआनन्द अानन्द अनशन VYAMwimmm VarnamaANYaviv.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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