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सामेश्वरदेवकृत कीर्तिकौमुदी' का ऐतिहासिक महाकाव्यों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुजरात के बघेल राजवंश के राणक लवण प्रसाद और वीरधवल के पुरोहित सोमेश्वरदेव और चालुक्य राजा भीमदेव के अमात्य सहोदर वस्तुपाल और तेजपाल में प्रगाढ़ मित्रता थी । वस्तुपाल के अपने प्रति सौहार्द्र, उसके अप्रतिम पराक्रम, साहित्यिक प्रतिभा तथा यश अभिभूत सोमेश्वर ने वस्तुपाल के गुणों की प्रशस्तिरूप 'कीर्तिकौमुदी' नामक काव्य सहित कई प्रशस्तियों की रचना की । सोमेश्वरदेव उच्चकोटि के प्रतिभाशाली कवि थे, कीर्तिकौमुदी उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक रचना है। इसमें प्रतिपाद्य तथ्यों का भी विशेष महत्त्व है, क्योंकि इसका नायक काव्य-प्रणेता का समकालीन है, चिरपरिचित है, प्रगाढ़ मित्र है । कवि और काव्यनायक के समकालीन होने से काव्य की ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिकता बढ़ जाती है।
कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्द
कीर्तिकौमुदी में नौ सर्ग हैं और इसके श्लोकों की कुल संख्या ७२२ है। इसके सर्गों का नाम क्रमशः नगरवर्णन, नरेन्द्रवंश वर्णन, मन्त्रप्रतिष्ठा, दूतसमागम, युद्धवर्णन, पुरप्रमोदवर्णन, चन्द्रोदयवर्णन, परमार्थविचार और यात्रासमागमन है ।
सर्गानुसार कीर्तिकौमुदी में प्रयुक्त छन्दों का लक्षणसहित विवेचन इस प्रकार है। प्रथम सर्ग नगर वर्णन में ८१ श्लोक हैं। इसमें आरंभ के ७६ श्लोकों में अनुष्टुप् छन्द प्रयुक्त हुआ है। इसके पश्चात् ७७ से ८१ श्लोकों में क्रमशः उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, पुष्पिताग्रा, मालिनी तथा शार्दूलविक्रीडित छन्द प्रयुक्त हुए हैं। इन छन्दों का लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी के अनुसार उदाहरण निम्नवत् है
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अनुष्टुभ् ' - श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्। द्विचतुः पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥
अर्थात् अनुष्टुप् में आठ वर्ण वाले चार चरण होते हैं। इसके अनेक प्रकार होते हैं। अनुष्टुप् के प्रत्येक चरण का पाँचवाँ वर्ण लघु, और छठा गुरु होता है। प्रथम और तृतीय चरण का सातवाँ वर्ण गुरु और द्वितीय और चतुर्थ चरण का लघु होता है । शेष वर्ण या तो लघु या गुरु होते हैं।
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डॉ. अशोक कुमार सिंह........
उदाहरण -
श्रिये सन्तु सतामेते, चिरं चातुर्भुजा भुजाः । यामिका इव धर्मस्य चत्वारः स्फुरदायुधाः ॥ ९/९ हर प्रासादसन्दोहमनोहरमिदं सः । राजते नगरं तच्च, राजहंसैरलकृताम् || ७६ / ९ ॥ उपेन्द्रवजा ४ ( उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ) इसके प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, तगण और जगण के पश्चात् दो गुरु होते हैं। उदाहरण ५ – सशंखचक्रः प्रथितप्रभुतावतारशाली कमलाभिरामः । स एव कासारशिरोवतंसः कंसप्रहर्तुः प्रतिमां विभर्ति ।। ७७/९ ।। उपजाति ६ - (अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः)
अर्थात् जिसमें इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा का लक्षण मिला हो, उसका नाम उपजाति छन्द है। इंद्रवज्रा छन्द का लक्षण होता है - स्यादिन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में दो तगण, एक जगण और दो गुरु हों तो उसको इंद्रवज्रा कहते हैं।
उदाहरण ७
उपेन्द्रवज्रा
न मानसे माद्यति मानसं मे
इंद्रवज्रा अच्छोदमच्छोदकमष्यसारं
इस श्लोक के प्रथम और चतुर्थ चरण उपेन्द्रवज्रा में होने और द्वितीय और तृतीय चरण इंद्रवज्रा में होने से इसमें उपजाति छन्द है । पुष्पिताग्रा
अजि नगरेफतो यकारो । युजि च न जौ जरगाश्च पुष्पिताग्रा ||
इंद्रवज्रा
पम्पा न सम्पादयति प्रमोदम् । उपेन्द्रवज्रा सरोवरे राजति सिद्धभर्तुः
यदि विषम पादों में दो नगणों से परे एक रगण, एक यगण हो और समपादों में एक नगण, दो जगण, एक रगण और अंत में एक गुरु हो तो वह छन्द पुष्पिताग्रा कहा जाता है। जैसे
प्रतितटघटितामिघातजातप्रसृमरफेनकदम्बकच्छलेन। हरहसितसितद्युतिं स्वकार्ति, दिशिदिशि कन्दलयत्ययं तडागः।।6।।
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