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________________ वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री : कर्नाटक साहित्य की परम्परा : ८५७ श्रीविजय, कविपरमेश्वर, पंडितचन्द्र, लोकपाल आदि कवियों का स्मरण किया है. महाकवि पम्प ने भी समन्तभद्र, कविपरमेष्ठी, पूज्यपाद आदि कवियों का उल्लेख किया है. समन्तभद्र और पूज्यपाद का समय बहुत प्राचीन है. इन आचार्यों की जन्मभूमि और कर्मभूमि कर्नाटक की रही है, इसीलिए अनुमान किया जा सकता है कि इन आचार्यों ने भी कोई कर्नाटक भाषा में अपनी रचना की हो, परन्तु अभी कोई उपलब्ध नहीं है. पूज्यपाद के कई ग्रंथों पर कर्नाटकटीका उपलब्ध होती है, समन्तभद्र के ग्रंथों पर भी पुराने कन्नड में टीका लिखी गई है. इसलिए यह सहज अनुमान हो सकता है कि इनके काल में भी कर्नाटक साहित्य की सृष्टि हुई हो. नृपतुग के द्वारा उल्लिखित श्रीविजय ने भी कोई कर्नाटकग्रंथ की रचना की होगी, यह भी स्पष्ट है, जिसका उल्लेख अनेक स्थलों में उत्तर ग्रन्थकार करते हैं. इन कवियों के साथ कवीश्वर या कविपरमेष्ठी का जो उल्लेख आता है वह भी प्राचीन कवि मालूम होता है. यह भी निर्विवाद है कि महापुराणकार भगवज्जिनमेन और गुणभद्र से भी पहिले इसकी रचना अस्तित्व में होगी, और महत्त्वपूर्ण स्थान को लेकर, क्योंकि भगवज्जिनसेन ने भी अपने आदिपुराण में इसका उल्लेख आदर के साथ किया है सः पूज्यः कविभिलॊके कवीनां परमेश्वरः वागर्थ-संग्रहं कृत्स्नं पुराणं यः समग्रहीत् ।' इसी प्रकार उत्तरपुराण में आचार्य गुणभद्र ने कवि परमेश्वर का उल्लेख किया है. इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि त्रिषष्टिशलाका पुरुषों के पुराण का कथन करने वाला ग्रंथ आचार्य जिनसेन और गुणभद्र से भी पहले अवश्य कवि परमेष्ठी के द्वारा रचित रहा होगा, वह कर्नाटक भाषा में था. वह भले ही संक्षिप्त हो, परन्तु भगवज्जिनसेनाचार्य ने उसका विस्तार किया. इन सब बातों को लिखने का हमारा अभिप्राय यह है कि कर्नाटक साहित्य की परम्परा बहुत प्राचीन है. जिनसेन गुणभद्रादिक से कई शती पहिले से ही कर्नाटक ग्रंथों की रचना होती रही, इस बात के उल्लेख उत्तर कालवर्ती ग्रंथों में पाये जाते हैं. तत्पूर्व के अनेक शिलालेख भी पाये जाते हैं. यत्र-तत्र ग्रन्थों में उन प्राचीन ग्रंथों के उद्धरण भी मिलते हैं. फिर भी दुदैव है कि समग्र साहित्य उपलब्ध नहीं होता है. इस सम्बन्ध में यहाँ पर हम दिग्दर्शन मात्र करा देते हैं. विशेष परिचय से स्वतन्त्र ग्रंथ बन जायगा. जैन कवियों ने कर्नाटक भाषा में गद्यकाव्य और पद्यकाव्य की रचना की है, आदिकवि पम्प ने चम्पू काव्य से ही अपनी कला का श्रीगणेश किया है. पंप महाकवि महाकवि ने क्रि० श० ६४१ में आदिपुराण और पम्पचरित की रचना की है, उनकी ये रचनायें चम्पू में हैं. चम्पूकाव्य का यही जनक प्रतीत होता है. इसकी रचना को कर्नाटक साहित्य में विशेष महत्त्व का स्थान है. पम्प मूलत: वैदिक था, अर्थात् इसके पूर्वज वैदिक थे, परन्तु इसके पिता श्री अभिराम ने जैन धर्म की महत्ता से प्रभावित होकर उसे अंगीकार किया. इसलिए पम्प के जीवन में जैन धर्म का ही संस्कार विशेषत: दृष्टिगोचर होता है. सबसे पहले महाकवि ने आदिपुराण की रचना की है, आदिपुराण की रचना प्रायः भगवज्जिनसेन के द्वारा विरचित आदिपुराण के कथा वस्तु को सामने रखकर पम्प ने की है. परन्तु शैली उसकी स्वतन्त्र है. जैसे संस्कृत महापुराण में आचार्य ने केवल कथासाहित्य का ही निर्माण नहीं किया साथ में धर्माचरण और तत्त्वबोध की दृष्टि भी रही, इसी प्रकार पम्प ने अपने ग्रन्थ में साहित्य और धर्मबोध, दोनों उद्देश्यों को साधा है. प्रादिपुराण में भी भगवान् आदिप्रभु का चरित्र बहुत सरस ढंग से चित्रित किया गया है, भोग और योग का सुन्दर सामंजस्य करते हुए कवि ने ग्रंथ में १. आदिपुराण पर्व १ श्लो०६०.
SR No.210348
Book TitleKarnatak Sahitya ki Prachin Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size596 KB
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