________________ करो | सत्य-साधना अन्तःकरण को निर्मल बनाती है / आचार्य समन्तभद्र ने जिस सत्य को अनावृत्त करने का उल्लेख किया है, उसका आधार है विचार और विवेक से बोलना, क्रोध का परित्याग करना, लोभग्रस्त न होना, निर्भय रहना और हँसी न करना / ये ही सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं / दशवैकालिक ने चार आवेगों का दमन इस प्रकार बताया गया है - क्रोध का उपशम से मान का मृदुता से, माया का ऋजुता से और लोभ का सन्तोष से / वीरप्रभु ने कहा आचार शुद्धि के लिए आहार शुद्धि आवश्यक है और विचार शुद्धि के लिए आचार शुद्धि / अहिंसा के पश्चात् सत्य द्वितीय महाव्रत है / संयम वह नैतिक गुण है, जिसके बिना आत्मोपलब्धि सम्भव नहीं / संयम आन्तरिक वृत्ति की पवित्रता और इन्द्रियों का अन्तर्मुखी प्रवाह है / उमास्वाती ने “तत्त्वार्थ सूत्र में" संयम पर विशेष प्रकाश डाला है / भगवान महावीर ने आदेश दिया - जयंचरे जयं चिट्ठे जयमासं जयं सए / जयं भुंजन्तो भासन्तो पावकर्मन बंधइ / / मन, वचन और कर्म की सावधानी संयम है। जैनधर्म मनुष्य को नैतिक मूल्यों से जोड़ता हुआ, उसे आत्मदर्शन की प्रज्ञा भूमिका पर ले जाता है | आज मनुष्य विवेकहीन हो गया है - विवेकहीनता उसे स्पर्धा, स्वार्थ, सत्ता और सम्पत्ति, हिंसा, मोह, लोभ, तृष्णा, दुर्भाव, कषाय की ओर ले जाकर पाशविक बना रही है / - यह अराजकता जितनी बाहर है उतनी ही भीतर | प्रदूषण की विभीषिका जहाँ समूचे पर्यावरण को नष्ट कर रही है, वहाँ मनुष्य के अन्तःकरण को भी / अधिकारलिप्सा के आगे कर्तव्यनिष्ठा समाप्त हो गयी है | आज वैज्ञानिक भी अपनी प्रयोगशाला से परे यह निर्द्वन्द्व भाव से स्वीकार करते हैं कि विश्व-शांति की संभावना विज्ञान और तकनीकी जड़ शक्ति से संभव नहीं / वह संभव है अध्यात्म की प्रेरणा से और मानवीय जीवन की नैतिक उच्चता से / जैनधर्म की अर्थवत्ता मनुष्य को पुनः मनुष्यत्व की नैतिक उच्चता और अध्यात्म की ओर ले जाने में है / भगवान महावीर ने जो क्रान्ति की थी, वह उसके अन्तर्बाहय को सत्याभिमुख करने की थी / उसकी पाशविकता को समाप्त कर जीवन में पूर्णता की उपलब्धि को | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को, वीरप्रभु ने जिन नैतिक मूल्यों को, मनुष्य के आचरण के लिए अनिवार्य बताया था - आज विश्व के सभी चिन्तक उन्हें ही सर्वतोभावेन स्वीकार करते हैं / आधुनिक नीतिशास्त्र का आत्मप्रसादवाद (इयूड्योमोनिज़्म) इसका उदाहरण है / नैतिक उच्चता व्यक्ति के मानसिक, वैयक्तिक और सामाजिक सहकारिता और सामंजस्य से ही संभव है | मानवीय पूर्णता के लिए उसके संवेगों और कषायों पर बौद्धिक नियंत्रण आवश्यक है / आधुनिक नीतिशास्त्र व्यक्ति के आचरण के लिए मूल्य चैतन्य को अनिवार्य गिनता है / इसी प्रकार अन्य सिद्धान्त "मिल्योरिज्म"का है / इसकी मान्यता है कि मनुष्य अपने आत्मिक विकास से जीवन को उच्चतम बना सकता है। यही आत्मदर्शन की स्थिति है / इस सिद्धान्त के अनुसार मानव मूलतः संत्रास, अवसादमय और नैराश्यपणं नहीं है। मनष्य अपने आचरण से अपना और अन्य व्यक्तियों का जीवन सुधार सकता है / जीवन में संघर्षों से जूझकर वह परम आत्मचैतन्य से संपृक्त हो अपना और लोक का जीवन नैतिक प्रत्ययों से पूर्ण कर सकता है, पर इसके लिए आवश्यक है। आचार और विचार की उच्चता और सामाजिक अवस्था में आमूल परिवर्तन | आत्मविश्वास की यात्रा में क्लान्त होकर बैठना उचित नहीं / धर्म की परिपूर्णता उसके सदाचार, सद्व्यवहार और सद्गुणों पर ही आधृत है / मार्टिन लूथर की मृत्यु के पश्चात् उसके शव को उसकी पत्नी ने महात्मा गांधी के चित्र के नीचे रखा क्योंकि वे अहिंसा, सत्य, मैत्री, प्रमोद, करुणा और मानवीय समता के मूर्त रूप थे। आधुनिक, नैतिक चिंतन को प्रायः दो प्रकार से आंका जाता है - पारंपरिक नैतिक मूल्य और आलोचनात्मक नैतिक मूल्य | एक शास्त्र सम्मत जीवन प्रक्रिया के लिए है और दूसरा सत्य के संधान का सनातन पक्ष / कहना न होगा कि भगवान महावीर के नैतिक मूल्य - आचार सिद्धान्त इन दोनों का पूर्ण समन्वय है - सामंजस्य / उन्होंने हमारे आंतरिक और बाय व्यक्तित्व को जो आचार संहिता दी, वह देश कालातीत, सनातन और शाश्वत है। उन्होंने बताया कि बाय और आंतरिक स्त्रोतों के छेदन से ही पाप निष्कृत होते हैं। उनका कथन है कि केवल शास्त्रों के अध्ययन से व्यक्ति आत्म-लाभ नहीं कर सकता, उसके लिए आवश्यक है नैतिक रूपान्तरण / इसीलिए वीरप्रभु ने कहा "अप्पणा' सच्च मे सेज्जा" तुम सत्य का स्वयं संधान करो / संसार में न कोई उच्च है और नीच - न श्रेष्ठ न हीन / सभी समान हैं। उनका स्पष्ट उद्घोष था - "सक्खं खु दीसइ तवो विससे / न दीसइ जाइ विसेष कोइ॥ जीवन में विशेषता साधना की है, जाति की नहीं, कर्म की है, जन्म की नहीं - "कम्मुणा बम्यणो होइ" और "समयाए समणो होइ" | महावीर कहते हैं - "प्रमत्त मनुष्य इस लोक और परलोक में सम्पत्ति से त्राण नहीं पा सकता, वह तो स्वार्थ का साधन है, परमार्थ का नहीं | सम्पदा महामय का कारण बनती हैं - संग्रह और परिग्रह की भावना में त्याग, अध्यात्म भाव - अनासक्ति नहीं / सही है कि हमारी यात्रा लम्बी है - कहीं कोई विश्राम नहीं अन्यत्र संबल नहीं, पाथेय नहीं | अपने आत्मबल से ही संसार सागर के तट पर पहुँचना है | जो लोभ, क्रोध, मान, माया, रागद्वेष और इन्द्रियासक्ति की वैतरणी पार नहीं कर सके, वे उसमें डूब जायेंगे, भवसागर का पार नहीं पा सकेंगे - “अपारंगमा ए ए नो य पारंगमित्तए" इसे पार करने के लिए जिस पुरुषार्थ की आवश्यकता है, वह पुरुष के ही भीतर है, बाहर नहीं - बंधन और मुक्ति वहीं है- भीतर | उसे अन्यत्र खोजना वृथा है / दुःख सुख में समान भाव से रहने वाला प्रमादहीन होकर संयम से उत्तम चरित्र प्राप्त करता है / इसी से जैन धर्म श्रद्धा और संयम पर बल देता है / पुरुषार्थ भाव से संयम को सम्यक रूप से स्वीकार करना है / प्रभु ने हमें सचेत किया कि भाषा का दुराग्रह हेय है / बताया कि केवल विद्या या शास्त्र हा मनुष्य को शेष भाग (पृष्ठ 13 पर)। नोभावेन स्वीकार करते हैं। उदाहरण भक्ति वहीं है - श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (9) ममता रख अरिहन्त से, समता उर में घार | जयन्तसेन वृत्ति यही, अन्तर मन का सार Ily.org Jain Education International For Private & Personal Use Only