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________________ • यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मलाः । वातस्थानुधाजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत् ।। उन्मदिता मौनेयेन वातां आ तस्थिमा वयम् । शरीरदेस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ।। ( १०.१३६.२ - ३ ) अर्थात् अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते या वे मलिन प्रकाश वाले हैं। इसी कारण वे पिंगलवर्ण के हैं। जब वे प्राणोपासना द्वारा वायु की गति धारण करते हैं, तब प्राणायाम रूप तप की महिमा से दीप्त देवत्व को प्राप्त कर लेते हैं। सब प्रकार के लोक-व्यवहार का त्याग कर हम मौनवृत्ति से या मननशील अन्तःकरण से अतिशय हर्षित होते हैं और वायु पर आधृत हो जाते हैं, यानी देहाभिमान से मुक्त घ्यानवृत्ति में स्थित हो जाते हैं। फलतः तुम साधारण मनुष्य हमारे केवल बाह्य शरीर मात्र को ही देख पाते हो। सच्चे आभ्यन्तर स्वरूप को नहीं (ऐसा वातरशना मुनि कहते हैं ) । ऋग्वेद में वर्णित वातरशना मुनि वे ही हैं, जिन्हें भागवत् के अनुसार ऋषभदेव ने उपदेश दिया था। भागवत् में यह भी उल्लेख है कि अपने पुत्र भरत को राज्याभिषिक्त करने के बाद स्वयं ऋषभदेव भी वातारशना मुनि की भाँति अवधूत हो गए : " “... भरतं धरणिपालनायाभिषिच्य स्वयं भवनएवोर्वरित शरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णकेश आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्त्तात्प्रवव्राज । जडान्धमूकबधिर -पिशाचोन्मादकवदवधूतवेषो ऽभिभाष्यमाणोऽपि जनानां गृहीतमौनव्रतस्तूष्णीं बभूव (५.५.२९) । इस प्रकार ऋग्वेद में संकेतित वातरशना मुनियों के उपदेशक ऋषभदेव स्वयं भी वातरशना मुनियों के प्रमुख प्रमाणित होते हैं। साथ ही ऋग्वेदवर्णित वातरशना मुनियों के लक्षण भागवत् के ऋषभदेव में भी परिलक्षित होते हैं। ऋग्वेद के उक्त सूक्त में ही 'केशी' की स्तुति उपलब्ध होती है। यह 'केशी' और कोई नहीं, वरन् ऋषभदेव ही हैं। मंत्र इस प्रकार है केश्यग्नि केशी विषं केशी विभर्ति रोदसी । केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते । । ( १०.१३६.१ ) केशी अग्नि, जल, स्वर्ग (आकाश) और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त जगत् को व्यापकता के साथ दृष्टिगत Pens Jain Education International For Private है। केशी ही प्रकाशमान (ज्ञानमय) ज्योति (केवल - ज्ञानी) है। वातरशना मुनि से सम्बद्ध इस सूक्त में कुल सात मन्त्र हैं, जिनमें छठा और सातवाँ मन्त्र भी केशी की स्तुति से ही सम्बद्ध है । ऋग्वेदोक्त केशी देवता ऋषभदेव का ही पर्याय है। ऋषभदेव का केशी विशेषण इस अर्थ में सार्थक है कि उनके केश बड़े खूबसूरत और घुंघराले हैं। उनका रूप-सौंदर्य कामदेव के भी दर्प को चूर करने वाला था। भागवत् में उपलब्ध उनके नखशिख का वर्णन सौन्दर्य- शास्त्रियों के अध्ययन का उपजीव्य बन सकता है : 'अतिसुकुमारकरचरणोर: स्थलविपुल - बाह्वंसगलवदनाद्यवयवविन्यासः प्रकृतिसुन्दरस्वभावहाससुमुखो नवनलिनदलायमानशिशिरतारारुणायतनयन रुचिरः सदृशसुभगकपोलकर्णकण्ठनासो विगूढ़स्मितवदनमहोत्सवेन पुरवनितानां मनसि कुसुमशरासनमुपदधानः परागलम्बमान कुटिलजटिलकपिशकेशभूरिभारो ... ।” (५.६.३१) अर्थात् ऋषभदेव के हाथ-पैर, छाती, लम्बी-लम्बी बाँहें, कंधे, गले और मुख आदि अंगों की बनावट बड़ी सुकुमार थी, उनका स्वभावतः सुन्दर मुख, स्वाभाविक मधुर मुस्कान से और भी मनोहर जान पड़ता था, नेत्र नवीन कमलदल के समान बड़े सुहावने, विशाल और कुछ लाली लिए हुए थे, जिनकी पुतलियाँ शीतल और संतापहारिणी थीं। अपने सुभग नेत्रों के कारण वे बड़े रूप- मनोरम प्रतीत होते थे। उनके कपोल, कान और नासिका आकृत्या समान और सुन्दर थे। उनके अस्फुट हास्य- रंजित मनोहारी मुखारविन्द की शोभा देखकर पुरनारियों के चित्त में कामदेव का संचार हो जाता था । उनके मनोज्ञ मुख के आगे भूरे रंग की लम्बी-लम्बी घुंघराली लटें लटकी रहती थीं ....।" भगवान् ऋषभदेव के कुंचित केशों की परम्परा ऋग्वेद में, वातरशना मुनियों के वर्णन के क्रम में, केशी नाम में प्राप्त होती है और फिर यही वर्णन - परम्परा कुटिल - जटिल - कपिश केशभूरिभारो श्रीमद्भागवत में भी मिलती है। जैन - परम्परा में ऋषभदेव की मूर्तियों के सिरों पर कुंचित केशों की अंकनप्रथा प्राचीनकाल से चली आई है, जो आज भी कायम है। यह ऋषभदेव का विशेष अभिज्ञान है। केसर, केश और जटा तीनों एक ही अर्थ के वाचक हैं। ऋषभदेव को 'केसरियानाथ' भी कहते हैं। सिंह भी अपने केशों या केसरों के कारण ही केसरी कहलाता है। शब्दसाम्य के कारण केसरियानाथ पर केसर चढ़ाने àmôàmôàmbimbi ६ ६ Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210306
Book TitleRushabhnath Shraman aur Bramhan Sanskrutiye ke Samanvay Setu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRanjan Suridev
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size541 KB
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