________________ 302 आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ विदितानुरागमापौर प्रकृति जनपदो राजानाभिरात्मजं समयसेतु रक्षायामभिषिच्य......."सहमरुदेव्या विशालायां' प्रसन्ननिपुणेन तपसा समाधियोगेन'.....महिमानमवाप ।'-श्रीमद्भागवत 5 / 4 / 5 गतवर्ष जब हमने हिमालय में विहार किया तब भी ऐसे बहुत से तथ्य समक्ष आए जिनसे इस प्रदेश में श्रमण-संस्कृति की पुष्टि मिली। श्रीनगर-गढवाल में जैन-संस्कृति की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि हुई। और ऐसा भी विदित हुआ कि इस प्रदेश क धनुपुर पट्टी आदि स्थानों पर जैनों और श्रमण-संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव रहा / खोज की आवश्यकता है। 1. 'विशालायां बदरिकाश्रमे ।'-श्रीधर टीका, काशी 'विशाल फलदा प्रोक्ता विशाला।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org