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आईत्-धर्म एवं श्रमण-संस्कृति
३०१ इस देश के अंग हैं ही। भारत का प्रचलित नामकरण भी इसी संस्कृति के अनुयायी चक्रवर्ती भरत से हुआ इस प्रकार श्रमण-संस्कृति का महत्ता बहुत बढ़ी चढ़ी और आदर्श रही है ।
[कुछ भाषाओं में श्रमण शब्द के रूप] १. प्राकृत भाषा में
'समण' मागधी
'शमण' संस्कृत
'श्रमण' [ 'कुमारः श्रमणादिभिः " पाणिनि २।११७० ] ४. अपभ्रंश
'सवणु' कन्नड
'श्रवण' ६. यूनानी
'सरमनाई' ७. चीनी
'श्रमणेरस' तमिल
'अमण'
[कुछ ग्रन्थों में श्रमण शब्द] १. ‘तृदिला अतृदिलासो अद्रयो श्रमणा अशृथिता अमृत्यवः ।'-ऋग्वेद १०।९४।११ २. 'यत्र लोका न लोकाः........श्रमणो न श्रमणस्तापसो........।'–ब्रह्मोपनिषद् ३. 'वातरशना' ह वा ऋषयः....श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुः । -तैत्तिरीयोपनिषद् , आरण्यक २७ ४. 'श्रमणोऽश्रमणस्तापतोऽतापसो........' -बृहदारण्यक ४।३।२२ ५. 'श्रमणः परिवाट्-यत्कर्मनिमित्तो भवति स........।' -शांकरभाष्य ६. 'वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा........।' -तैत्तिरीय आरण्यक २, प्र० ७, अनु० १-२
___ वातरशनाख्या ऋषयः श्रमणास्तपस्विनः........ ।'–सायण टीका ८. 'आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ।'–श्रीमद्भागवत १२।३।१८-१९ ९. 'वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमंथिनाम् ........ ।'–श्रीमद्भागवत ५।३।२०
इस प्रकार श्रमण संस्कृति और आर्हत्-धर्म प्राचीनतम सिद्ध होते हैं। यह संस्कृति हिमालय में भी व्याप्त रही। युग के आदि मनु नाभि और आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का इस प्रदेश से भी घनिष्ट संबंध रहा ऐसे भी प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। हिन्दू ग्रन्थ श्रीमद्भागवत में लिखा है-नाभि मनु और रानी मरुदेवी ने यहीं से कल्याणपद [ तपस्या द्वारा] प्राप्त किया । तथाहि
'कुमार : श्रमणादिना'-शब्दार्णवचंद्रिका; 'कुमारः श्रमणादिभिः'-जैनेन्द्र व्याकरण १।३।६५ वातरशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः। -श्रीमद्भागवत ११।६।४७
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