________________ कविवर मलूकचन्द्र:-इनके द्वारा रचित 'वैद्य हुलास' या 'तिब्बसाहाबी' है। यह ग्रन्थ लुकमान हकीम के 'तिव्वसाहाबी' का हिन्दी पद्यानुवाद है। इस ग्रन्थ में 'श्रावक धर्मकुल को नाम मलूकचन्द्र' इन शब्दों के द्वारा अनुवादक ने अपने नाम का उल्लेख किया है। ग्रन्थ का रचनाकाल व रचना-स्थान दोनों अज्ञात है / इनका समय १६वीं शती के लगभग माना गया है। संभवतः ये बीकानेर के आसपास के निवासी थे और खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे। कविवर रामचन्द्रः-इनके द्वारा दो वैद्यक ग्रन्थ रचे गये ऐसा पता चलता है-(१) रामविनोद, तथा (2) वैद्यविनोद / दोनों ग्रन्थ हिन्दी में हैं। रामविनोद की रचना संवत् 1720 में मार्गशीर्ष शुक्ला त्रयोदशी बुधवार को अवरंगशाह (औरंगजेव) के राज्यकाल में पंजाब के बन्न देशवर्ती शक्की नगर में की गई / ग्रन्थ सात समुद्देशों में विभक्त है तथा इसमें 1981 गाथाएँ हैं। वैद्यविनोद की रचना सं० 1726 में वैशाख सुदी 15 को मरोटकोट नामक स्थान में की गई थी जो उस समय औरंगजेब के राज्य में विद्यमान था। ये खरतरगच्छीय यति थे। इनके गुरु का नाम पद्मरंग गणि था। इनका समय वि० सं० 1720-50 माना जाता है। इनके तीन और वैद्यक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-(१) नाड़ो परीक्षा, (2) मान परिमाण, और (3) सामुदिक भाषा / कविवर लक्ष्मीवल्लभ:-कविवर लक्ष्मीवल्लभ द्वारा रचित 'कालज्ञान' एक अनुवाद रचना है जो वैद्य शंभुनाथ-कृत ग्रन्थ का पद्यान वाद है। इस ग्रन्थ से आपके बैद्यक विषय के सम्बन्धी गंभीर ज्ञान की झलक सहज ही मिल जाती है / इस ग्रन्थ का रचनाकाल सं० 1741 है। इनका जन्म संवत् 1660 और 1703 के बीच होना ज्ञात होता है। इन्होंने सं० 1707 के आसपास दीक्षा ली थी। इनकी अधिकांश रचनाएँ सं० 1720 से 1750 के बीच लिखी गई थी। इनकी छोटी-बड़ी लगभग पचास से भी अधिक रचनाएँ हैं। कविवर मानः-ये खरतरगच्छीय भट्टारक जिनचंद्र के शिष्य बाचक सुमति सुमेर के शिष्य थे। ये बीकानेर के रहने वाले थे। वैद्यक पर इनकी दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-कविविनोद और कविप्रमोद / वैद्यक सार संग्रह' भी इनकी अन्य रचना बताई जाती है। दोनों ग्रन्थों से लेखक के वैद्यक ज्ञान का अच्छा परिचय मिलता है। कविविनोद का रचनाकाल 1741 है। कवि प्रमोद सं० 1745 वैशाख शुक्ला 5 को लाहौर में रची गयी। समरथ :-इनके द्वारा रचित ग्रन्थ रसमञ्जरी है। इसका रचनाकाल सं० 1764 है। ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति श्री अगरचन्ट नाहटा के संग्रह में है। ग्रन्थ की पूर्ण प्रति उपलब्ध नहीं है / उपलब्ध प्रति अपूर्ण है / ग्रन्थ में कल दस अध्याय बताये जाते हैं। मनिमेघ-इनका ग्रन्थ 'मेघविनोद' आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है / इस ग्रन्थ की रचना फाल्गुन शुक्ला 13 सं० 15 में हुई। मनि मेघविजय यति थे / इनका उपाश्रय फगवाड़ा नगर में था। इस ग्रन्थ की रचना का स्थान फगआनगर है जो फगवाडा के अन्तर्गत ही था / फगवाड़ा नगर तत्कालीन कपूरथला स्टेट के अन्तर्गत आता था / यति गंगाराम :-इन्होंने लोलिम्बराज नामक वैद्यक ग्रन्थ लिखा है। इसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह इसी नाम के संस्कृत ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद है। इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'वैद्यजीवन' है। ग्रन्थ का रचनाकाल सं० 1872 है। इनका दूसरा ग्रन्थ 'सरतप्रकाश' है जिसका रचनाकाल सं० 1883 है और जिसे 'भाव-दीपक' भी कहा जाता है। इसमें विभिन्न रोगों के चिकित्सार्थ अनेक योगों का उल्लेख है / इनका तीसरा ग्रन्थ 'भाव-निदान' है / यह आयुर्वेदीय निदान पद्धति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल सं० 1888 है। ग्रन्थों में लेखक ने अपना कोई परिचय नहीं दिया है। श्री यशकीति :-ये बागड़ संघ के रामकीर्ति के शिष्य विमलकीति के शिष्य थे। इन्होंने जगत्सन्दरी प्रयोगमाला' नामक वैद्यक ग्रन्थ लिखा है / इस ग्रन्थ में 42 अध्याय हैं। ग्रन्थ प्राकृत में है और औषधियों के सूत्र, जादू-टोना, वशीकरण तथा जन्म-मंत्र के समान अन्य विषयों से सम्बन्धित जानकारी विश्वज्ञान-कोश की भांति प्रदान करता है / श्रीहसराज मुनि :-ये खरतरगच्छ के वर्द्धमान सूरि के शिष्य थे / इनका समय १७वीं सदी ज्ञात होता है। इनका भिषक्चकचित्तोत्सव' जिसे 'हंसराज निदान' भी कहते हैं, चिकित्सा-विषयक ग्रन्थ है। ग्रन्थारम्भ में 'श्री पार्श्वनाथायनमः' लिखकर सरस्वती प्रभति और धन्वन्तरि की वंदना है। ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है / इनके अतिरिक्त कुछ उल्लेखनीय विद्वानों के नाम इस प्रकार हैं जिन्होंने आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की है : विनयमेरुगणि, रामलाल महोपाध्याय, दीपकचन्द्रवाचक, महेन्द्र जैन, जिनसमुद्रसरि, जोगीदास चैनसुख यति, पीताम्बर, ज्ञानसागर, लक्ष्मीचंद जैन, विश्राम, जिनदास वैद्य, धर्मसी, नारायणशेखर जैनाचार्य, गुणाकर और जयरत्न / यदि विशेष शोध कार्य किया जाए तो इस विषय पर बहुत सामग्री उपलब्ध हो सकती है। इस दिशा में विद्वानों को आवश्यक प्रयास करना चाहिये। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org