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चन्द्रकीर्ति बतलाया है । अंत में यह कामना की है कि जिस प्रकार योगप्रदीप और योगशत है उसी प्रकार योगचिंतामणि है । इससे पता चलता है कि हर्षकीर्ति के समय ये दो ग्रन्थ अत्यन्त प्रचलित थे ।
लेखक ने ग्रन्थ रचना में आत्रेय, चरक, सुश्रुत, वाग्भट, अश्विन, हारीत वृन्द, चिकित्साकलिका, भृगु, भेद निदान (माधव), कर्मविपाक ग्रन्थों का उपयोग किया है। इस सम्बन्ध में वह लिखता है कि नूतन पाठ विधान का पण्डितगण आदर नहीं करेंगे इस कारण आर्ष वचनों को निबद्ध कर रहा हूं न कि सामर्थ्य के अभाव से ।
"योगचितामणि' नामक ग्रन्थ वैद्यवरा ग्रगण्य श्री हर्षकीर्तिजी ने निर्मित किया। इसमें प्रत्येक रोग का निदान - पूर्व रूप का अच्छे प्रकार से कथन कर उनके ऊपर कषाय, रसायन, मात्रा, पाक, चूर्ण, तेल, गुटिका, अवलेह इत्यादि सर्वरोगों की औषधि विचारपूर्वक वर्णन की है और समस्त औषधि भी सुगमता से कही है ।' इस ग्रंथ में सात अधिकार हैं ।
देवेन्द्रमुनि :- इनकी रचना बालग्रह चिकित्सा है।
इसमें बालकों की ग्रह पीड़ा की चिकित्सा का वर्णन है । ग्रन्थ प्रायः वाक्यरूप में है । इनका समय लगभग १२०० ई० है । इनके विषय में अधिक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
श्री हस्तिरुचि : श्री हस्तिरुचि तपागच्छ के प्राज्ञोदयरुचि के शिष्य हितरुचि के शिष्य थे । इन्होंने अपने ग्रन्थ 'वैद्यवल्लभ' की ई० स० १६७० में रचना की।
आचार्य शर्मा ने लिखा है "हस्तिर्सन कविविरचित ग्रन्थ में आठ विलास हैं। अनेक योगों में एतद हस्तकम्. कारितं कविता, कविता कथितं आदि का निर्देश होने से ये योग लेखक के अनुभूत हैं। ऐसा प्रतीत होता है। स्त्रियों के लिये गर्भपात तथा गर्भनिवारण के अनेक योग हैं। स्त्रियों का धातुरोग (२/१७) सम्भवत: श्वेत प्रदर है । सोरा ( ४ / १६) सूर्यक्षार के नाम से है । विजया (५४), अहिफेन ( ४/२०, ५०४ ) और अकरकरा (४।२३) भी हैं। इच्छाभेदी, सर्वकुष्ठारि आदि अनेक रस प्रयोग भी हैं। अहिफेन, सोमल ( शंखिया), रक्तिका धत्तूर आदि के विष को शान्त करने के उपाय कहे गये हैं । पादव्रण में एक लेप का विधान है जिसमें मोम, राल, साबुन और मक्खन है। ( ८२६) ।
हस्तिरुचि के समय के सम्बन्ध में आचार्य श्री प्रियव्रत शर्मा ने लिखा है: - "ग्रन्थ के अंत में एक वटी मुरादिसाह वटी है, जिससे लेखक मुरादशाह का समकालीन या परवर्ती प्रतीत होता है। मुराद औरंगजेब का भाई था जो १६६१ ई० में मारा गया। पूना की एक पाण्डुलिपि में प्रदत्त सूचना के अनुसार लेखक महोपाध्याय हितचिगणि का शिष्य था और तपागच्छ का निवासी था । इसमें ग्रन्थ रचना का काल सं० १७२६ ( १६०३ ई० ) दिया है । यह स्मरणीय है कि तपागच्छ का निवासी योगचिंतामणि प्रणेता हर्षकीर्ति भी था । सम्भवतः दोनों समकालीन हों किन्तु योगचितामणि पहले बना होगा, क्योंकि उसका एक श्लोक तत्रस्थ दूसरी पाण्डुलिपि (सं० २८२ ) में 'उद्धृत है ।' आचार्य प्रियव्रत शर्मा ने यहां पर भी तपागच्छ के संबंध में भ्रमोत्पादक बात कही है। तपागच्छ स्थान न होकर श्वेताम्बर जैन धर्माबलम्बियों का एक गच्छ है। ऐसा लगता है कि आचार्य प्रियव्रत शर्मा जैन परम्पराओं से परिचित नहीं हैं, अन्यथा वे ऐसा नहीं लिखते । आयुर्वेद के क्षेत्र में हस्तिरुचि का योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है। वैद्यवल्लभ के वर्ण्य विषयों को देखते हुए पुस्तक बहुत उपयोगी लगती है ।
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वीरसिंह देव जैन प्रथावली में इनके द्वारा रचित 'वीरसिंह बलोक' का उल्लेख है।" डा० हरिश्चन्द्र जैन ने अपने लेख 'अ वेद के ज्ञाता जैनाचार्य के अंतर्गत वीरसिंह का उल्लेख करते हुए लिखा है - वे १३वीं शताब्दी ए० डी० में हुए हैं। इन्होंने चिकित्सा की दृष्टि से ज्योतिष का महत्त्व लिखा है । 'वीरसिहावलोक' इनका ग्रंथ है।
नयनसुख: -इनके द्वारा रचित निम्नलिखित वैद्यक ग्रंथों का उल्लेख मिलता है— वैद्यमनोत्सव, सन्ताननिधि, सन्निपात
कलिका; मालोन्तररास ।
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वैद्यमनोत्सव ग्रंथ पद्यमय रूप से निबद्ध है और दोहा, सोरठा व चौपाई छन्दों में इसकी रचना की गई है ! ग्रन्थ की रचना संवत १६४१ में की थी। श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार इस ग्रन्थ को संवत् १६४६ वि० को चैत्र शुक्ला द्वितीया को अकबर के राज्य में सीहनंद नगर में समाप्त किया गया ।"
१. योग चिंतामणि- लक्ष्मीवेकेश्वर प्रेस बम्बई - प्रस्तावना ।
२. The Jaina Artiquary Vol. xiii N. 1 July, 1947, page 100 & 355.
३. आयुर्वेद का वैज्ञानिक इतिहास, पृ० २२९.
४. वही, ४६९.
५.
१० ३६०.
६.
जैन जगत पृ. ५१ नवम्बर १६७५.
७. हिन्दुस्तानी में प्रकाशित उनका लेख ।
जैन प्राच्य विद्याएँ
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