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आचार्य हरिमन सूरि और उनका योग-विज्ञान / ११३
योग के प्रथम पांच भेद-१. स्थान, २. ऊर्ण, ३. अर्थ, ४. पालम्बन एवं ५. अनालम्बन-योग के ये पांच भेद हैं। इनमें प्रथम दो भेदों-स्थान एवं ऊर्ण का सम्बन्ध कर्म से है, अतः ये दो 'कर्मयोग' हैं । शेष तीन भेदज्ञान से सम्बद्ध होने के कारण 'ज्ञानयोग' हैं।'
'स्थान' का अर्थ है पद्मासन, कायोत्सर्ग प्रादि प्रासन । योगाभ्यास के समय प्रत्येक क्रिया के साथ जिन सूत्रों का उच्चारण किया जाता है उन्हें 'ऊर्ण' कहते हैं। 'अर्थ' से तात्पर्य
पर्यत सत्रों के अर्थबोध का प्रयत्ल । ध्यान में बाह्यसतीक आदि का प्राधार 'मालम्बन' है। ध्यान में रूपात्मक पदार्थों का सहारा न लेना 'अनालम्बन' कहा गया है। यह निर्विकल्प समाधि रूप है।
योग के पुनः चार भेद-उपर्युक्त पांच भेदों में प्रत्येक के पुनः चार भेद किये हैं१. इच्छा, २. प्रवत्ति, ३. स्थिरता एवं ४. सिद्धि । तात्त्विक दृष्टि से ये योग की चार-चार कोटियां उसके क्रमिक विकास की स्थितियां हैं।
योगाराधक पुरुषों की कथा में प्रीति 'इच्छा' है। उपशमभाव पूर्वक योग का यथार्थतः पालन 'प्रवृत्ति' है। बाधाजनित विघ्नों की चिन्ता से रहित योग का सुस्थिर परिपालन 'स्थिरता' है। योग के स्थानादि पांच रूप उस योगी के सम्पर्क में आने वाले अन्यान्य लोगों को भी सहज रूप में उत्प्रेरित करें, उसे 'सिद्धि योग' कहा जाता है।
इस प्रकार योग के बीस भेद हुए।
अनुष्ठान के चार भेद-उपर्युक्त बीस प्रकार का योग अनुष्ठान के भेद से पुन: निम्न प्रकार चार रूपों में विभक्त होकर अस्सी प्रकार का हो जाता है। अनुष्ठान के चार भेद इस प्रकार हैं-१. प्रीति, २. भक्ति, ३. आगम तथा ४. असंगता ।'
अन्यान्य क्रियाओं को छोड़कर केवल योग क्रिया में तीव्र रति होना 'प्रीति' है। आलम्बनात्मक विषय के प्रति विशेष आदरबुद्धि 'भक्ति' है। शास्त्रानुसार यौगिक प्रवृत्ति का होना 'पागम' है । संस्कारों की दृढता से यौगिक प्रवृत्ति करते समय शास्त्र-स्मरण की कोई अपेक्षा ही न रहे, धर्म जीवन में एकरस हो जाय, वह 'असंगता' की स्थिति है।
योगी की साधना का परम लक्ष्य-प्राचार्य योग के चरम लक्ष्य की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि इस पालम्बन योग के सिद्ध हो जाने पर मोहसागर तीर्ण हो जाता है, क्षपक श्रेणी प्रकट हो जाती है, केवलज्ञान उद्भासित हो जाता है तथा अयोग अर्थात् प्रवृत्ति मात्र के अभावरूप योग के सध जाने से योगी अपने चरमलक्ष्य परम निर्वाण को प्राप्त कर लेता है
"एयम्मि मोहसागरतरणं सेढी य केवलं चेव । तत्तो अजोगजोगो कमेण परमं च निव्वाणं ॥" -योगविशिका २०
१. ठाणुन्नत्थालंबण-रहियो तन्तम्मि पंचहा एसो।
दुगमित्थकम्मजोगो तहा तियं नाणजोबो उ॥ -योगविशिका २ २. योगविंशिका ४-६ ३. वही १८
आसमस्थ तभ आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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