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पंचम खण्ड / ११२
| अर्चनार्चन
यौगिक लब्धियां--योग के प्रभाव से योगी को स्वतः अद्भुत लब्धियां-'रत्न', 'अणिमा', 'आमोसहि' आदि प्राप्त होती हैं। योगसूत्रकार पतंजलि ने इन्हें 'विभूति' कहा है। बौद्ध-परम्परा में ये 'अभिज्ञाएं' कही गई हैं। जैन-परम्परा में इनका नाम 'लब्धि ' है।'
'रत्नलब्धि' का अर्थ है, पृथ्वी में स्थित रत्न प्रादि का प्रत्यक्षीकरण । ' 'अणिमालब्धि' का अर्थ है, अपुसदृश रूप धारण करने की शक्ति । 3 'ग्रामोसहि लब्धि' का अर्थ है, स्पर्श मात्र से रोग दूर करने की शक्ति ।
आहार-साधक के आहार की चर्चा करते हुए उसे सर्वसंयत्करी भिक्षा का विधान बताया गया है। प्राचार्य ने भिक्षा की उस व्रणलेप से तुलना की है जो फोड़े-फुसी पर उनके शमन हेतु उचित मात्रा में लगाया जाता है। इसी प्रकार भिक्षा को परिमित मात्रा में ग्रहण करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है, अन्यथा भिक्षा के सदोष होने से योग भी सदोष हो जावेगा।
कालज्ञान, देहत्याग तथा भवविरह-प्राचार्य ने 'योगशतक' के अन्त में साधक के. पागम, देवी संकेत, प्रतिभा, प्राभास, स्वप्न आदि के द्वारा मृत्यु-समय के ज्ञान का उल्लेख किया है।
प्राचार्य कहते हैं-"जिसका चित्तरूप रत्न अत्यन्त निर्मल है ऐसा योगी अपना अन्त समय निकट जानकर विशुद्ध अनशन विधि से देह का त्याग करे।""
'भवविरह' प्राचार्य हरिभद्र अन्त में कहते हैं कि जो योगी सम्पूर्ण जीवन योग-साधना के पश्चात् उपर्युक्त विधि से देहत्याग करता है वह भवविरह-सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है
"ता इय आणाजोगी जइयव्वमजोगयत्थिणा सम्म ।
ऐसो च्चिय भवविरहो सिद्धीए सया अविरहो य॥" ४. योगविशिका
प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल बीस प्राकृत गाथाएँ हैं, जिनमें संक्षेप में योग-साधना का वर्णन करते हए योग के अस्सी भेदों पर प्रकाश डाला गया है।
योग का अर्थ-ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राचार्य ने दो महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं—प्रथम यह कि मोक्ष से जोड़ने के कारण समस्त धर्म-व्यापार 'योग' है। द्वितीय यह कि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रसङ्ग में 'योग' शब्द से प्रासन, व्यायाम प्रादि का अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए।' १. योगशतक-८३-८४ २. ३. 'अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।' -योगसूत्र २।३७ -यो० सू० ३४५ ४. 'जैन योगग्रन्थ चतुष्टय'--योगशतक के ८४वें श्लोक की हिन्दी टीका देखिए। ५. योगशतक ८१-८२ ६. ७. ८. योगशतक क्रमशः ९७, ९६ तथा १०१ ९. "मोक्खेण जोयणायो जोगो सब्बो वि धम्मवावारो।
परिसुद्धो विन्नेग्रो ठाणाइगो विसेसेणं ॥" -योगविशिका १
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