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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड
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मगवती, उपासकदशांग, ज्ञाताधर्मकथा, उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में यत्र-तत्र अनेक श्रमणोपासकों की गौरव गाथाएँ अंकित हैं | जिससे उनके गम्भीर अध्ययन का भी पता चलता है । उदाहरण स्वरूप देखें
ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक
ऋषिभद्रपुत्र श्रावक आलम्भिका नगर का निवासी था। एक बार श्रमणोपासकों की जिज्ञासा का समाधान करते हुए उसने कहा कि देवताओं की जघन्य स्थिति दस सहस्र वर्ष की है और उससे एक समय अधिक दो समय अधिक तीन समयाधिक ऐसे संख्यात असंख्यात समयाधिक बढ़ाते हुए उत्कृष्ट स्थिति तेत्तीस सागरोपम की है उससे आगे अधिक स्थिति के न कोई देव हैं, न देवलोक हैं उससे आगे देवलोग विच्छिन्न हैं । किन्तु ऋषिभद्र श्रावक के प्रस्तुत उत्तर पर अन्य श्रावकों को श्रद्धा, प्रतीति नहीं हुई। वे स्वस्थान गये । कुछ समय के पश्चात् नगर में श्रमण भगवान महावीर का पदार्पण हुआ। सभी श्रावक भगवान् को वन्दनार्थं उपस्थित हुए, प्रवचन सुना एवं अपनी शंका उनके सामने रखी । महावीर ने कहा - ऋषिभद्रपुत्र ने देवताओं की जो स्थिति बतलाई है वह सर्वथा सत्य है, मैं भी ऐसा ही कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ | वे श्रमणोपासक भगवान महावीर से यह सुनकर ऋषिभद्रपुत्र श्रावक के पास गये, वन्दन कर क्षमायाचना की । गौतम गणधर ने ऋषिभद्र श्रावक के भविष्य के सम्बन्ध में प्रश्न किया — यह श्रमण बनेगा या नहीं ? भगवान महावीर ने कहा- नहीं श्रावक जीवन में ही तीन दिन का अनशन करके प्रथम स्वर्ग में उत्पन्न होगा । वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य बन कर सिद्ध बुद्ध एवं मुक्त होगा । इसी प्रकार शंख पुष्कली, मद्रक श्रावक, पिंगलक निर्ग्रन्थ, जयन्ती श्रमणोपासका, आनन्द, कामदेव, चुल्लनीपिता, सुरादेव, कुण्डकोलिक, सकडाल पुत्र, महाशतक, नन्दनी पिता, सालिहीपिता आदि अनेक श्रावक हैं। विस्तार भय से उन सभी का वर्णन यहाँ नहीं दिया गया है ।
बहुत ही संक्षेप में मैंने आगम साहित्य के आलोक में श्रावकाचार के सम्बन्ध में चिन्तन प्रस्तुत किया। श्रावकाचार पर आगम साहित्य के पश्चात् श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा के मूर्धन्य मनीषी गणों ने अत्यधिक साहित्य का निर्माण किया है । आगम साहित्य में जो बातें सूत्र रूप में बताई गईं उन्हीं पर बाद में बहुत ही विस्तार से लिखा गया । आधुनिक युग के परिप्रेक्ष्य में भी हम चिन्तन करें तो श्रावक के नियमोपनियम की आज भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी अतीत काल में थी । मेरी दृष्टि से उससे भी अधिक आवश्यकता है जीवन को शान्त और आनन्दमय बनाने के लिए !
सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल
१ ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या आत्मा ब्रह्म व नापरः ।
२ पंचविहे आवारे पत्ते तं जनानावारे, दंसणावारे, चरिताबारे तवाबारे वीरिवारे
३ जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य ।
अहो दुक्खो हु संसारो जन्म कीसन्ति जन्तवो ॥
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४ मिस सुक्खा बहुकाल दुक्खा पशामक्या अणिगामसुक्या ।
संसारमोक्खस्स विपक्खभूया खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥
५ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
६ तस्वार्थानं सम्यग्दर्शनम् ।
७ "मतियुतावधिमनः पर्यायकेवलानि ज्ञानम् ।
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८ नाणं च दंसणं चैव चरितं च तवो तहा । एवं मग्गमणुपत्ता जीवा गच्छन्ति सोग्गई ||
६ नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ॥
१० देशसर्वतोऽणुमती |
११ दुविधमे सुमेदेव परियमे चैव ।
१२ वही, स्था० २२
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१३ पुच्छरसुणं समणा महणाय, 'आगारिणो' य परतित्थियाय" । १४ श्रद्धालुतां श्राति पदार्थ चिन्तनाद्, धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना, दत्तोपि तं श्रावक माहुरुत्तमा ।"
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- ठाणांग, ५ वां स्थान, उद्देशक २
-उत्तरा० गाथा १६
- उत्तरा० गाथा १३
- तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय १ सूत्र १
- तत्वार्थ सूत्र अध्याय १ सू० २ - तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय १
-उत्त० २८, गाथा ३
- उत्त० अ० २८, गा० ११ तत्वार्थसूत्र ० ७ ०२ -ठाणांग, सू० २ ठा०
- सूत्रकृतांग अ० ६
- श्राद्धविधि शा० श्लो० ३
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