Book Title: Agamo ke Alok me Sharavakachar Ek Parishilan
Author(s): Chandravatishreeji
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 1
________________ SNo.५४० श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड आगमों के आलोक मेंश्रावकाचार : एक परिशीलन * आर्या श्री चन्द्रावती जी म०, जैनसिद्धान्ताचार्य दर्शन और जीवन श्रावकधर्म श्रमण भगवान महावीर की एक अमूल्य देन है। धर्म के उच्चादर्श को जीवन के धरातल पर साक्षात्कार करने की यह सुन्दर से सुन्दर और सरल से सरल विधि है । दर्शन केवल कल्पना के सौन्दर्य तक सीमित नहीं है किंतु वह यथार्थ जीवन से उतना ही सम्बन्ध मानता है जितना कि सूर्य के साथ उसकी रश्मियों का है । दर्शन का सम्बन्ध जब जीवन के साथ एकाकार हो जाता है तब उस जीवन में एक अनुपम चमत्कृति उत्पन्न हो जाती है। जैसे टेढ़ी-मेढ़ी अनमेल लकीरों को सुव्यवस्थित रूप देकर चित्रकार एक मनोहर चित्र की अभिव्यक्ति करता है और एक कलाकार अनगढ़ पाषाण से दर्शनीय प्रतिमा उत्कीर्ण करता है । श्रमण भगवान महावीर भी दर्शन के ऐसे अनुपम कलाकार थे जिन्होंने मृण्मय मानव में चैतन्य की मुक्त चेतना का आलोक प्रसारित किया। पाश्चात्य दार्शनिकों का यह अभिमत है कि कला कला के लिये है, जीवन के लिये उसका सम्बन्ध अपेक्षित नहीं है। ऐसे ही अनेक भारतीय दार्शनिक भी यह मानते हैं कि दर्शन दर्शन के लिए है जीवन के लिए दर्शन की आवश्यकता नहीं है । वे कहते हैं-ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है' यह ज्ञप्ति होने पर मुक्ति स्वतः हो जाती है किंतु जैनदर्शन यह मानता है कि इस ज्ञप्ति में भी एक विशिष्ट प्रक्रिया है जिसके साथ जीवन का प्रत्येक क्षण जड़ता से मुक्त होकर चैतन्य की ज्ञानचन्द्रिका से जगमगा उठता है और वे विचार आचार में प्रत्यक्ष ओतप्रोत हो जाते हैं। जैनदर्शन में विद्या-अविद्या अर्थात् ज्ञान और अज्ञान को एक सम्यकाचार और मिथ्याचार की विधि में निहित किया है । वहाँ आचार को पांच प्रकार से प्रदर्शित किया है, वह हैं "ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार।"२ मुक्ति का पथिक आत्मा अनन्तकाल से अनन्त आधि-व्याधि-उपाधि के दुःखों से संत्रस्त है । अतः प्रत्येक आत्मा उन दुःखों से मुक्ति चाहता है । जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, इत्यादि अनेक असह्य दुःखों से संसारी आत्माएं क्लेश पा रही हैं। श्रमण भगवान महावीर ने शरीर एवं शरीर से सम्बन्धित विषयों को एकान्त दुःखप्रद माना है । आत्मा जब तक अज्ञान अवस्था में होता है तब तक दुःख के कारणों को सुख रूप समझकर उनका सम्मान करना है। किन्तु सम्यग्ज्ञान होने पर वही आत्मा यह समझ लेता है कि शरीर व इन्द्रियों के विषय क्षणमात्र सुख की भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं और बहुत काल के लिए दुःखप्रद होते है, उनमें सुख अल्प है और दुःख अनन्त है, वे अनन्त मोक्ष सुख के प्रतिपक्षी हैं एवं अनर्थों की खान हैं ऐसे दुःखद कामभोगों से मुक्ति का साधक विरक्त हो जाता है। संसार का मार्ग और मुक्ति का मार्ग---इन दोनों में पूर्व पश्चिम का अन्तर है । आत्मा जब मुक्तिपथ का पथिक होता है तो संसार के सुखों की और पीठ कर देता है । जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य उमास्वाति ने सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र को मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया है। उसमें आगे चलकर तीनों का विस्तृत विवेचन किया है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान व चारित्र के अनेक भेद-प्रभेद करके समझाया गया है। तत्त्वार्थसूत्र के पूरे दस अध्यायों में इन तीनों का विस्तार से वर्णन कर मोक्षमार्ग का स्वरूप बताया है अतः इस ग्रन्थ का नाम ही मोक्षशास्त्र हो गया है । इसमें 'तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन" कहा है तत्पश्चात् प्रत्यक्ष-परोक्ष पांच प्रकार के ज्ञान का वर्णन है, वे हैं मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान । इसके प्रथम अध्याय में ज्ञान-दर्शन का विवेचन है तो द्वितीय में क्षायोपशमिक, क्षायिक आदि पाँच भावों से संपन्न शुद्ध व अशुद्ध जीव का वर्णन, तृतीय में ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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