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________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य स्नेहराग के लिए अरहन्नक का दृष्टांत, द्वेष के निक्षेप और धर्मरुचि निम्नलिखित पांच प्रकार के श्रमण अवन्द्य हैं--१. आजीवक, का दृष्टांत, कषाय के निक्षेप और. जमदग्न्यादि के उदाहरण, २. तापस, ३. परिव्राजक, ४. तच्चणिय, ५. बोटिक। इसी प्रकार अर्हन्नमस्कार का फल, सिद्धनमस्कार और कर्म सिद्धादि, पार्श्वस्थ आदि भी अवंद्य हैं। चूर्णिकार स्वयं लिखते हैं -- किं औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी बद्धि, कर्मक्षय, च, इमेवि पंच ण वंदियव्वा समणसद्देवि सति, जहा आजीवगा और समुद्घात, अयोगिगुणस्थान और योगनिरोध, सिद्धों का तावसा परिव्वायगा, तच्चंणिया बोडिया समणा वा इमं सासणं सुख, अवगाह आदि, आचार्यनमस्कार, उपाध्यायनमस्कार, पडिवन्ना, ण य ते अन्नतित्थे ण य सतित्थे जे वि सतित्थे न साधुनमस्कार, नमस्कार का प्रयोजन आदि यहाँ तक। प्रतिज्ञामणुपालयन्ति ते वि पंच पासत्थादी ण वंदितव्वा।३३ आगे नमस्कारनियुक्ति की चूर्णि का अधिकार है। आचार्य ने कुशीलसंसर्गत्याग, लिंग, ज्ञान-दर्शन-चारित्रवाद, सामायिकनियुक्ति की चर्णि में 'करेमि' इत्यादि पदों की आलंबनवाद, वंद्यवंदकसंबंध, वंद्यावंद्यकाल, वंदनसंख्या. पदच्छेदपूर्वक व्याख्या की गई है तथा छह प्रकार के करण का वंदनदोष, वंदनफल आदि का दृष्टान्तपूर्वक विचार किया है। विस्तृत निरूपण किया गया है। यहाँ तक सामायिक. चर्णि का प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन का विवेचन करते हुए अधिकार है। चूर्णिकार कहते हैं कि प्रतिक्रमण का शब्दार्थ है प्रतिनिवृत्ति। सामायिक अध्ययन की चूर्णि समाप्त करने के बाद आचार्य देवास प्रमाद के वश अपने स्थान (प्रतिज्ञा) से हटकर अन्यत्र जाने के ने द्वितीय अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव पर प्रकाश डाला है। इसमें बाद पुनः अपने स्थान पर लौटने की जो क्रिया है, वही प्रतिक्रमण नियुक्ति का ही अनुसरण करते हए स्तव, लोक, उद्योत. धर्म है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य ने दो श्लोक उद्धृत तीर्थंकर आदि पदों का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया किए हैहै। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ का स्वरूप बताते हुए चूर्णिकार कहते स्वस्थानाद्यत्परं स्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः। हैं-- वृष उद्वहने, उब्बूढं तेन भगवता जगत्संसारभग्गं तेन ऋषभ तत्रैव क्रमणं भूयः, प्रतिक्रमणमुच्यते।।1।। इति, सर्व एव भगवन्तो जगात अतुलं नाणदंसणचरितं वा, क्षायोपशमिकाद्वापि, भावादौदयिकं गतः। एते सामण्णं वा, विसेसो ऊरूषु दोसुवि भगवतो उसभा ओपरामुहा तत्रापि हि स एवार्थः, प्रतिकूलगमात् स्मृतः।।2।। तेण निव्वत्त बारसाहस्स नामं कतं उसभोत्ति...।" इसी प्रकार इसी प्रकार चूर्णिकार ने प्रतिक्रमण का स्वरूप समझाते अन्य तीर्थंकरों का स्वरूप भी बताया गया है। हुए एक प्राकृत गाथा भी उद्धृत की है, जिसमें बताया गया है कि शुभ योग में पुनः प्रवर्तन करना प्रतिक्रमण है। वह गाथा इस तृतीय अध्ययन वन्दना का व्याख्यान करते हुए आचार्य प्रकार है--३५ ने अनेक दृष्टांत दिए हैं। वन्दनकर्म के साथ ही साथ चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म का भी सोदाहरण विवेचन पति पति पवत्तणं वा सुभेसु जोगेसु मोक्खफलदेसु। किया है। वन्द्यावन्द्य का विचार करते हुए चूर्णिकार ने वन्द्य निस्सल्लस्स जतिस्सा जं तेणं तं पडिक्कमणं॥1॥ श्रमण का स्वरूप इस प्रकार बताया है--श्रम तपसि खेदे च, . चर्णिकार ने नियुक्तिकार ही की भाँति प्रतिक्रमक, प्रतिक्रमण श्राम्यतीति श्रमणः तंवंदेज्ज केरिसं? मेधावि मेरया धावतीति और प्रतिक्रांतव्य- इन तीनों दृष्टियों से प्रतिक्रमण का व्याख्यान मेधावी, अहवा मेधावी-विज्ञानवान् तं; पाठान्तरं वा समणं वंदेज्जु किया है। इसी प्रकार प्रतिचरणा, परिहरणा, वारणा, निवृत्ति, मेधावी। तेण मेधाविणा मेधावी वंदित्तव्वो, चउभंगी, चउत्थे भंगे निंदा, गर्दा, शुद्धि और आलोचना का विवेचन करते हुए आचार्य कितिकंमफलं भवतीति, सेसएसु भयणा। तथा संजतं संमं ने तत्तद्विषयक कथानक भी दिए हैं। प्रतिक्रमण-संबंधी सूत्र के पावोवरतं, तहा सुसमाहितं सुटठु समाहितं सुसमाहितं पदों का अर्थ करते हुए कायिक, वाचिक और मानसिक अतिचार, णाणदंसणचरणेसु समुज्जतमिति यावत, को य सो एवंभूतः? ईर्यापथिकी विराधना, प्रकामशय्या, भिक्षाचर्या, स्वाध्याय आदि पंचसमितो तिगुत्तो अट्ठहिं पवयणमाताहिं ठितो...२ मेधावी, में लगने वाले दोषों का स्वरूप समझाया गया है। इसी प्रसंग में संयत और ससमाहित श्रमण की वंदना करनी चाहिए। चार प्रकार के कामगण, पाँच प्रकार के महाव्रत, पाँच प्रकारकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210168
Book TitleAgamik Churniya aur Churnikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size2 MB
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