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________________ समिति, परिष्ठापना, प्रतिलेखना आदि का अनेक आख्यानों एवं उद्धरणों के साथ प्रतिपादन किया गया है। एकादश उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप समझाते हुए चूर्णिकार ने एत्थं कवि अण्णोवि पाढो दीसति इन शब्दों के साथ पाठांतर भी दिया है। इसी प्रकार द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं का भी वर्णन किया गया है। तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम एवं गुणस्थान, पंद्रह परमाधार्मिक, सोलह अध्ययन (सूत्रकृत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन ), सत्रह प्रकार का असंयम, अठारह प्रकार का अब्रह्म, उत्क्षिप्तना आदि उन्नीस अध्ययन, बीस असमाधिस्थान इक्कीस सबल (अविशुद्ध चरित्र), बाईस परीषह, तेईस सूत्रकृत के अध्ययन (पुंडरीक आदि), चौबीस देव, पच्चीस भावनाएँ, छब्बीस उद्देश (दशाश्रुतस्कन्ध के दस, कल्प - बृहत्कल्प के छह और व्यवहार के दस ), ३६ सत्ताईस अनगार गुण, अट्ठाईस प्रकार का आचराकल्प, उनतीस पापश्रुत, तीस मोहनीय स्थान, इकतीस सिद्धादिगुण, बत्तीस प्रकार का योगसंग्रह आदि विषयों का प्रतिपादन करने के बाद आचार्य ने ग्रहण -शिक्षा और आसेवनशिक्षा --इन दो प्रकार की शिक्षाओं का उल्लेख किया है और बताया है कि आसेवनशिक्षा का वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि ओघसामाचारी और पदविभागसामाचारी में किया गया है-आसेवणसिक्खा जथा ओहसामायारीए पयविभागसामाचारीए य वण्णितं।" शिक्षा का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए अभयकुमार का विस्तृत वृत्त भी दिया गया है। इसी प्रसंग पर चूर्णिकार ने श्रेणिक, चेल्लणा, सुलसा, कोणिक, चेटक, उदायी, महापद्मनंद, शकटाल, वररुचि, स्थूलभद्र आदि से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक आख्यानों का संग्रह किया है। अज्ञातोपधानता, अलोभता, तितिक्षा, आर्जव, शुचि, सम्यग्दर्शनविशुद्धि, समाधान, आचारोपगत्व, विनयोपगत्व, धृतमति, संवेग, प्रणिधि, सुविधि, संवर, आत्मदोषोपसंहार, प्रत्याख्यान, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, ध्यान, वेदना, संग, प्रायश्चित, आराधना, आशातना, अस्वाध्यायिक, प्रत्युपेक्षणा आदि प्रतिक्रमणसंबंधी अन्य आवश्यक विषयों का दृष्टांत पूर्वक प्रतिपादन करते हुए प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन का व्याख्यान समाप्त किया है। आत्मदोषोपसंहार का वर्णन करते हुए व्रत की महत्ता बताने के लिए आचार्य ने एक सुंदर श्लोक उद्धृत किया है जिसे यहाँ देना अप्रासंगिक न होगा। वह श्लोक इस प्रकार है- ३९ asramamam यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य Jain Education International वरं प्रविष्टं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणो, न शीलवृत्तस्खलितस्य जीवतम् ॥1॥ For Private अर्थात् जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर लेना अच्छा है किन्तु चिरसंचित व्रत को भंग करना ठीक नहीं। विशुद्धकर्मशील होकर मर जाना अच्छा है,किन्तु शील से स्खलित होकर जीना ठीक नहीं। पंचम अध्ययन कायोत्सर्ग की व्याख्या के प्रारंभ में व्रणचिकित्सा (वणतिगिच्छा) का प्रतिपादन किया गया है और कहा गया है कि व्रण दो प्रकार का होता है- द्रव्यव्रण और भावव्रण। द्रव्यव्रण की औषधादि से चिकित्सा होती है। भावव्रण अतिचाररूप है जिसकी चिकित्सा प्रायश्चित्त से होती है। वह प्रायश्चित्त दस प्रकार है--आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक । चूर्णि का मूल पाठ इस प्रकार है-- सो य वणो दुविधो- दव्वे भावे य, दव्ववणो ओसहादीहिं तिगिच्छिज्जति, भाववणो संजमातियारो तस्स पायच्छित्तेण तिगिच्छणा, एतेणावसरेण पायच्छित्तं परूविज्जति। वणतिगिच्छा अणुगमो य, तं पायच्छित्तं दसविहं....। दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का विशद वर्णन जीतकल्प सूत्र में देखना चाहिए। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग दो पद हैं। काय का निक्षेप नाम आदि बारह प्रकार का है। उत्सर्ग का निक्षेप नाम आदि छह प्रकार का है। कायोत्सर्ग के दो भेद हैंचेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग । अभिभवकायोत्सर्ग हार कर अथवा हराकर किया जाता है। हूणादि से पराजित होकर कायोत्सर्ग करना अभिभवकायोत्सर्ग है। गमनागमनादि के कारण जो कायोत्सर्ग किया जाता है वह चेष्टाकायोत्सर्ग है-- सो पुण काउसग्गो दुविधो चेट्ठाकाउस्सग्गो य अभिभवकाउस्सग्गो य, अभिभवो नाम अभिभूतो वा परेण परं वा अभिभूय कुणति, परेणाभिभूतो तथा हूणादीहिं अभिभूतो सव्वं सरीरादि वोसिमि काउस्सग्गं करेति, परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति, जथा तित्थगरो देवमणुयादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय कासगं कर्तुं प्रतिज्ञां पूरेति, चेट्ठाकाउस्सग्गो चेट्ठातो निप्फण्णो जथा गमणागमणादिसु काउस्सग्गो कीरति... । ४९ कायोत्सर्ग के प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो अथवा उच्छ्रित आदि नौ भेद भी होते हैं । ४२ इन भेदों का वर्णन करने के बाद श्रुत, सिद्ध आदि की स्तुति का विवेचन किया गया है तथा क्षामणा की विधि पर प्रकाश डाला गया है। कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि का वर्णन SWEG 30 þóramónóvomóróuð Personal Use Only Samsara www.jainelibrary.org
SR No.210168
Book TitleAgamik Churniya aur Churnikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size2 MB
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