________________ 824 : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : चतुर्थ अध्याय एक-एक दो-दो आगमों के प्रकाशन तो कई जगह से हुए हैं. किंतु इनका व्यापक क्षेत्र नहीं बन सका क्योंकि साम्प्रदायिक दृष्टिकोण सर्वत्र प्रगति का बाधक बनता रहता है. भावी प्रकाशन-इस युग में आगमबत्तीसी के एक ऐसे संस्करण की आवश्यकता है जो सर्वश्रेष्ठ मुद्रण-कला से मुद्रित हो और पाकेट साइज में एक जिल्द में चार अनुयोगों में वर्गीकृत एवं पुनरुक्ति रहित हो. तमेव सच्चं हिस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं—वही असंदिग्ध सत्य है जो जिन भगवान् ने कहा है. जैनागमों का यह संक्षिप्त पर्यालोचन जिस रूप में मैं चाहता था उस रूप में प्रस्तुत नहीं कर सका. इसमें एक प्रमुख कारण था-पर्याप्त साहित्य सामग्री का अभाव. श्रद्धेय क्षमाश्रमण श्री हजारीमलजी महाराज सा० के श्री-चरणों में रहने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है. उनकी आदर्श आगम-भक्ति की अमिट छाप मेरे हृदय पर अंकित है. उनके श्रीमुख से "तमेव सच्चं णिस्संकं जं जिणेहि पवे इयं" यह वाक्य सदा सर्वदा प्रस्फुटित होता रहता था. वे मुझ से अनेक वार आगमों का स्वाध्याय सुनते, यथाप्रसंग चिन्तन मनन का प्रसाद देते और जरा-जर्जरित देह से भी नियमित स्वाध्याय करते थे. उनके पुनीत पाद-पद्मों की स्मृति में मेरा यह अल्प अर्ध्य सभक्ति समर्पित है. श्रमणोत्तम श्री हजारीमल जी महाराज की स्मृति में प्रकाशित यह "स्मृतिग्रंथ" शुद्ध सात्विक ज्ञानयज्ञ है. स्तृतिग्रंथ / के संपादकों की यह महान् श्रुतसेवा और दानदाताओं की ज्ञान-भक्ति युग-युग तक अमर रहेगी. साथ ही स्वाध्यायशील पाठकों की ज्ञान आराधना सदा सर्वदा सफल होती रहेगी. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org