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अर्थमें भूल और उसका समाधान
यों तो शब्दोंके अर्थमें कभी-कभी भूल हो जाया करती है और बादमें वह ठीक भी हो जाती है। लेकिन कोई-कोई भूल ऐसी हो जाती है जो कि परम्परामें पहुँच जाती है। फिर उसके विषयमें यह ध्यान भी नहीं होता कि भूल है या नहीं। ऐसे ही कुछ स्थलोंको यहाँपर रखता हूँ आशा है विद्वान पाठक अवश्य विचार करेंगे।
१. न्यायदीपिका "असाधारणधर्मवचनं लक्षणमिति केचित्, तदनुपपन्नं लक्ष्यमिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन सामानाधिकरण्याभावप्रसंगात् ।"
यह तो मुझे स्मरण नहीं कि गुरुमुखसे इसका क्या अर्थ मैंने सुना था, किन्तु उस समय मुझे इस ग्रंथकी एटा निवासी पं० खूबचन्द्र जी कृत हिन्दी-टीका देखनेका मौका मिला था, उसमें इन पंक्तियोंका जो अर्थ किया गया है वह मुझे असंगत जान पड़ा। मालूम होता है इस हिन्दी-टीकाके सहारेपर ही कम विद्यार्थी-समाजमें तो यह अर्थ अवश्य ही माना जाता है ।
___ हमारी जैन परीक्षाओंमें भी यह प्रश्न प्रायः पूछा जाता है और बहुधा विद्यार्थी भी इसी ढंगसे समाधान करते होंगे । अच्छा होता, यदि विद्वान परीक्षक इस अर्थके विषयमें कुछ संकेत करते, लेकिन इसपर आज तक किसीका भी ध्यान नहीं गया। अस्तु, उल्लिखित टोकामें इस प्रकार अर्थ किया गया है
__ "कई मतवाले सर्वथा असाधारण धर्मको लक्षण कहते हैं, परन्तु यह उनका कहना ठीक नहीं है क्योंकि लक्ष्य और लक्षण दोनों एक ही अधिकरणमें रहते है ऐसा नियम है। यदि ऐसा न मानोगे तो घटका लक्षण पट भी मानना पड़ेगा, परन्तु प्रवादीके माने हुए लक्षणके अनुसार लक्ष्य तथा लक्षण (का) रहना एक ही अधिकरणमें नहीं बन सकता, क्योंकि उसके मतानुसार लक्षण लक्ष्यमें रहता है और लक्ष्य अपने अवयवोंमें रहता है। जैसे पृथिवीका लक्षण गंध है वह गंध पृथिवीमें रहता है और पृथिवी अपने अवयवोंमें रहती है इसलिये इस लक्षणमें असंभव दोष आता है।"
१. यहाँपर टीकाकारने लक्ष्य और लक्षणके विषयमें एक अधिकरणका नियम मानकर उस नियमके अभावमें जो जो यह आपत्ति दी है कि घटका लक्षण पट भी मानना पड़ेगा, वह ठीक नहीं, कारण कि दूध और जल ये दोनों पदार्थ एक पात्रमें रखे जा सकते हैं तो उस अवस्थामें दूध और जलमें परस्परके लक्ष्य लक्षणभावकी आपत्ति एक अधिकरणके माननेपर भी बनी रहती है । रस और रूप तो सर्वदा एक ही अधिकरणमें रहते है, इसलिये इनमें तो यह आपत्ति स्पष्ट ही है ।
२. स्वयं न्यायदीपिकाकारने भी लक्ष्य और लक्षणका एक अधिकरण स्वीकार नहीं किया है, अग्निका लक्षण उष्णपना और देवदत्तका लक्षण दण्ड इन दोनों लक्षणोंमें लक्ष्य और लक्षणका एक आधार कोई भी विद्वान स्वीकार नहीं करेगा।
३. आगे चलकर जो यह लिखा है कि "नैयायिकके मतानुसार लक्षण लक्ष्यमें रहता है और लक्ष्य अपने अवयवोंमें रहता है", यह लिखना भी ठीक नहीं, कारण एक तो लक्ष्य और लक्षणकी एकाधिकरणता लक्ष्य-लक्षणभावकी नियामक नहीं, जबकि लक्ष्य सर्वदा लक्षणका आधार ही रहता है। दूसरी बात यह है कि नैयायिकके मतानुसार गुणका लक्षण तो गुणमें रहता है और गुण द्रव्यमें रहता है न कि अपने अवयवोंमें,
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