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________________ ४/ दर्शन और न्याय : ८१ तब हम यह कैसे कह सकते हैं कि नैयायिकके मतानुसार लक्षण लक्ष्यमें रहता है और लक्ष्य अपने अवयवोंमें रहता है। यद्यपि द्रव्यकी अपेक्षासे यह कथन सम्मत कहा जा सकता है। किन्तु यहाँ पर लक्ष्य-लक्षणभावका सामान्य कथन होनेके कारण ऐसा लिखना समालोच्य अवश्य है। अब मैं पाठकोंके सामने उस अर्थको रखता हूँ जो संगत मालूम होता है। वचनका अर्थ वाक्य या शब्द होता है । लक्षणके कथनमें दो वाक्य होते हैं-१. लक्ष्यवाक्य, २. लक्षणवाक्य । नैयायिक असाधारणधर्मवचनको लक्षण मानता है, इसलिये उसके अनुसार जब लक्षण धर्मवचन हआ तो लक्ष्यको धर्मिवचन मानना होगा, कारण किसी पदार्थका आसाधारणधर्म जब उस पदार्थका लक्षण माना जाता है तो लक्ष्यपदार्थ धर्मिरूप ही सिद्ध होता है। "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्, गंधवती' पृथ्वी" इनमें सम्यग्ज्ञानत्व प्रमाणका और गंधवत्व या गंध पथिवीका लक्षण है इसलिये 'सम्यग्ज्ञानं' और 'गंधवती' ये दोनों वचन लक्षणवचन हैं और 'प्रमाणं' तथा 'पथिवी' ये दोनों लक्ष्यवचन हैं। यहाँपर सम्यग्ज्ञानपदवाच्य जो वस्तु है वही प्रमाणपदवाच्य है तथा गंधवतीपदवाच्य जो वस्तु है वही पृथिवीपदवाच्य है। इस प्रकार लक्ष्यवचन और लक्षणवचनका सामानाधिकरण्य मानना पड़ता है, कारण बिना सामानाधिकरण्यके समानविभक्तिक प्रयोग नहीं हो सकते । २भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तवाले शब्दोंको एक अर्थमें वृत्तिको सामानाधिकरण्य कहते हैं। यहाँ पर वृत्तिका अर्थ सम्बन्ध है, वह सम्बन्ध शब्द और अर्थका वाच्य-वाचकभावरूप माना गया है। “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं" इसमें 'सम्यग्ज्ञानं' इस लक्षणवचनका प्रवृत्तिनिमित्त सम्यग्ज्ञानत्व है, 'प्रमाणं' इस लक्ष्यवचनका प्रवृत्तिनिमित्त प्रमाणत्व है। इस तरह भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तवाले ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के बोधक हैं अर्थात् सम्यग्ज्ञानशब्दसे जिस अर्थका बोध होता है वही अर्थ प्रमाणशब्दसे जाना जाता है, कारण कि जो वस्तु सम्यग्ज्ञान है वही तो प्रमाण है। इसी प्रकार गन्धवत्वप्रवृत्तिनिमित्तवाले गन्धवतीशब्दसे जिस अर्थका बोध होता है वही अर्थ पथिवीत्वप्रवृत्तिनिमित्तवाले पृथिवीशब्दसे जाना जाता है, कारण जो पदार्थ गन्धवान है वही तो पथिवी है। इस तरह लक्ष्यवचन और लक्षणवचन एक ही अर्थके प्रतिपादक होनेसे वे समानाधिकरण सिद्ध होते हैं। नैयायिकके मतानुसार लक्ष्यवचन मिवचनरूप और लक्षणवचन धर्मवचन रूप ही सिद्ध होते हैं। लेकिन धर्मिवचन और धर्मवचन कभी भी एक अर्थके प्रतिपादक नहीं होते हैं-धर्मवचन धर्मका ही प्रतिपादन करता है और धर्मिवचन धर्मीका ही प्रतिपादन करता है, इसलिये इन दोनोंमें एकार्थप्रतिपादनरूप सामानाधिकरण्यका अभाव प्राप्त होता है, वह उचित नहीं कहा जा सकता है, कारण कि लक्ष्यवचन और लक्षणवचनमें सामानाधिकरण्य “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं, गन्धवती पृथ्वी" इत्यादि स्थलोंमें माना गया है, इसलिये नैयायिकके द्वारा माना हुआ लक्षणका लक्षण ठीक नहीं है। उसमें असम्भव दोष आता है। २. आप्तपरीक्षा "स्यान्मतं पथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवद्रव्याणि । द्रव्यपदस्यार्थ इति (चेत्), कथमेको द्रव्यपदार्थः ? सामान्यसंज्ञाभिधानादिति चेन्न सामान्यसंज्ञायाः सामान्य वद्विषयत्वात् । तदर्थस्य सामान्यपदार्थत्वे ततो विशेष्वप्रवृत्तिप्रसंगात्; द्रव्यपदार्थस्यैकस्यासिद्धेश्च" (पृष्ठ ४, पुराना संस्करण)। १. नैयायिक मतानुसार । २. भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानां शब्दानामेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम् । -सिद्धान्तकौमुदी व्याकरण, न्या० त० बोधनी टीका । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210115
Book TitleArth me Mul aur uska Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherZ_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
Publication Year1989
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle, Grammar, & Logic
File Size658 KB
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