________________ - विविध - शास्त्राणां च पूर्णतया परिज्ञातार आसन्, पुनः प्रकाशन - भगीरथाः श्रीमद् - जयन्तसेनसूरयो “मधुकराः" तस्मादेवातिप्रवीणया धियाऽस्य सम्पादनमकुर्वन् / चिरकालात् प्रकाशितस्याभिधानराजेन्द्रकोशस्य भागा विद्वद्भ्यो वस्तुतः साहित्यस्य धरातलं लोकादूर्ध्वं भवति, तदुपरि विशालस्य दुर्लभसजाता आसन् / साम्प्रतिके युगे शोधशालानां महाग्रन्थागाराणां संसारस्य स्रष्टेव विद्वान् विराजते / स हि जनः स्वीये मनसि तथा विश्वविद्यालयानां विस्तारः समुहान् संवृत्तः / अनुसन्धातृणां विचिन्त्य परीक्ष्य च यां वाचं प्रस्तौति तस्या मर्म तत्समभावनाशालिन कृते जैनागम-वर्णित-विषयावबोधाय को शराजस्यास्य एव ज्ञातुं प्रभवन्ति / "विद्वानेव विजानाति विद्वज्जन - परिश्रमम् / महत्यावश्यकताऽनुभूयते स्म / तामनुभूय श्रीमन्त आचार्य-प्रवरा नहि वन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम् / / श्रीजयन्तसेनसूरयस्तेषु सूरिवरेषु श्रद्धधाना भगीरथेन प्रयासेन समग्रस्य तस्य प्रकाशनेन समस्तं विद्वज्जगदुपकृतवन्त इति महते गौरवाय / इत्ययमाभाणकः किल - अभिधान - राजेन्द्रकोशस्य नितरां परिशीलनेनैव तेभ्यो विनता अभिनन्दनाञ्जलयः साम्प्रतं ग्रन्थ-विशेषरूपेण विपश्चितः कथञ्चित् सकलागमपारदृश्वानां श्रीमतां समर्पयितुकामाः सन्ति भक्तिभाजो विद्यानुरागिण इति महत् विजयराजेन्द्रसूरीश्वराणां श्रमजातं वैदुष्यं च परिज्ञातुं प्रभवन्तीति प्रमोदस्थानम् / 'चिरं जीवन्तुतमाम्' ते महाभागा इति परमेश्वरं सत्यमेव / वयमपि सर्वात्मना प्रार्थयामः / इति शम् / / अत एव समस्तानां जैनागमानां तदङ्गभूतानामन्येषां टीका - राष्ट्रस्यास्य विराजते सुमहती स्पष्टा प्रतिष्ठा क्षितौ, प्रटीकादिग्रन्थानां सारसर्वस्वं सरलया पद्धत्या समालोड्य समुद्राद् रत्नभूतानां शब्दरत्नानां वास्तविकं तत्त्वं परिबोधयितुं ज्ञानेनैव चिरात् प्रखरिणी सर्वोच्च-सानौ स्थिता / श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिवरैर्विनिर्मितोऽभिधानराजेन्द्रकोशः प्रामाणिकं तामात्मप्रतिभाभरेण निरतं संवर्धयन्तो बुधाः, साहित्यं प्रस्तौति / कोशेऽस्मिन् कोश-विद्यायै समपेक्षिताः प्रक्रियास्तु [क्रियास्तु केषां नैव भवन्तु भूमिपटले ते वन्दनाभागिनः // 1 // प्रयुक्ता एव, सहैव नवनवाः प्रकारा अप्याविष्कृताः / जैनसिद्धान्तपरिज्ञानाय कोशोऽयं कल्पवृक्षायितः / ग्रन्थानां मूलपाठ विश्वज्ञान-निधानवर्षणपरस्तत्त्वप्रकाशान्वितः, न सङ्गहेणास्य महत्त्वं सर्वोपरि परिगण्यते / विद्याविदां समाजे स्वदेशे शब्दार्थागम-मण्डितः श्रुतपथाचारश्रियाऽऽभासितः / विदेशे वा सर्वत्र यादृशः सम्मानः श्रीमदभिधान - राजेन्द्र - कोशेन जैनानामखिलार्थसार्थसहितो रत्नत्रयी-राजितः, समवाप्तः स तु सर्वानतिशेत एव / गाय श्रीराजेन्द्रगुरोरमेययशसा कोशश्चिरं राजताम् / मधुकर-मौक्तिक हम अक्सर कहा करते हैं: मैं तो अपने मन के अनुसार चलता हूँ। यह बात मन का अपने ऊपर अधिकार सिद्ध करती है। यदि हमें 'जीव' का विश्वास हो जाए, तो हम ऐसा नहीं कहेंगे / 'जीव' का विश्वास होने के बाद हमारा कहने का ढंग बदल जाएगा | तब हम कहेंगे, हमारे 'जीव' को जैसा अँचेगा, वैसा हम करेंगे / आज तक हम मन को जॅचे वैसा करते आये हैं और इसीलिए इसका परिणाम यह हुआ है कि मन हम पर सवार हो गया है। वस्तुतः होना यह चाहिये था कि हम मन पर सवार हो जाते; पर हुआ उल्टा ही; मन हम पर सवार हो गया / सवार घोड़े पर बैठने के बजाय घोड़ा सवार पर बैठ गया / सवार पर घोड़ा बैठ गया तो फिर रहा ही क्या? ज्ञानी कहते हैं, 'मन के घोड़े पर हमें बैठना है और उसे लगाम बाँधना है। मन का घोड़ा हम पर सवारी कर चुका है, यह जानकर के उसे दूर हटाना है / उस पर सवार होने की योग्यता हमें प्राप्त करनी है। वह योग्यता और शक्ति हमें तब ही प्राप्त हो सकती है, जब हम पंच परमेष्ठियों का परिचय प्राप्त कर उनकी शरण में जाएँ / जब हम नवकार मत्र के सच्चे आराधक होंगे, तभी हमें पंच परमेष्ठी की शरण प्राप्त होगी / महामन्त्र का आराधक कभी इस संसार-चक्र में नहीं फँसेगा / असल में उसके सामने भव-भ्रमण का चक्र रहता ही नहीं है, किन्तु हम तो हमेशा चक्कर में ही बैठे हैं। चक्कर के सिवा हमारे पास और है ही क्या ? - जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (34) इस रंगीले जगत का, चित्र विचित्र स्वरूप / जयन्तसेन स्वभाव में, रहना सौख्य अनूप / / www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only