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अपरिग्रह और समाजवाद एक तुलना
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सौभाग्यमल जैन [ प्रबुद्ध विचारक एवं चिन्तक ]
यह सब कोई जानते हैं कि भगवान् महावीर का तत्वदर्शन 'अहिंसा' पर आधारित है। जैन आगम के प्रश्नव्याकरण सूत्र में भगवान महावीर ने 'अहिंसा' भगवती के ६० पर्यायवाची नामों का वर्णन किया है । जब हम अहिंसा शब्द को लेते हैं तो जन साधारण केवल किसी प्राणी का प्राणघात न करने की बात से तात्पर्य लेता है किन्तु वास्तविकता यह है कि भगवान महावीर ने जहाँ समस्त प्राणी जगत के प्रति अहिंसक रहने का विचार दिया वहीं समाज में वैचारिक अहिंसा के रूप में ‘अनेकांत' तथा सामाजिक तथा आर्थिक न्याय के लिये 'अपरिग्रह' का विचार दिया। यह सारी असा की ही प्रक्रिया है । यदि हम गहराई से अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि 'अपरिग्रह' एक विचार है 'वाद' नहीं है । जो सिद्धान्त, वाद का स्थान ग्रहण कर लेता है उसमें जड़ता, संकुचितता आ जाती है जबकि 'विचार' में सदैव उन्नतशीलता रहती है । जैसे-जैसे मानव समाज में वैचारिक 'प्रगति होती जाती है वैसे-वैसे उस सिद्धान्त की प्रगतिशील व्याख्या होती जाती है। भगवान महावीर से पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में उनका उपदेश 'चातुर्याम धर्म' कहा जाता था । उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह चार सिद्धान्तों को अपनाने पर बल दिया था। अनुमान यह है कि उन्होंने 'स्त्री' को भी एक परिग्रह माना तथा उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया, किन्तु भगवान महावीर ने अनुभव किया कि -- महिला स्वयं एक बड़ी शक्ति है, उसका स्वतंत्र अस्तित्व है, तब उन्होंने पुरुष के लिये ( यदि वह गृहस्थ है) स्वदारसन्तोष तथा महिला के लिये ( यदि वह गृहस्थ है) स्वपतिसन्तोष का व्रत रखने की दृष्टि से चतुर्थ व्रत ब्रह्मचर्य का विधान किया। इस प्रकार पंचयाम धर्म का उपदेश दिया । तात्पर्य यह है कि अपरिग्रह एक विचार है, जिसमें सदैव नित नवीनता तथा प्रगतिशीलता विद्यमान है। हमारे युग के महापुरुष गांधीजी ने भी अपने विचारों का कोई 'वाद' या 'गांधीवाद' स्वीकार नहीं किया अपितु देश को एक विचार दिया ।
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भगवान महावीर ने अनुभव किया कि समाज में अर्थजन्य द्वेष तथा ईर्ष्या विद्यमान उसके निराकरण का उपाय सर्वांश या अंशतः अपरिग्रह के विचार में ही है । मनुष्य की इच्छा आकाश के समान 'अनंत' है, यदि उस पर नियंत्रण न हो तो वह उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती जाती है, किन्तु प्रश्न यह है कि नियन्त्रण स्वेच्छा का हो या कानून द्वारा थोपा गया ? अनुभव यह बताता है कि जब कोई बात कानून द्वारा थोपी जाती है तो मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का हनन अनुभव करता है तथा उसके Voilation के मार्ग खोजता है, जबकि स्वेच्छा के नियंत्रण में मनुष्य उल्लंघन का प्रयत्न नहीं करता। तात्पर्य यह कि 'अपरिग्रह' एक स्वेच्छापूर्ण नियन्त्रण है । मनुष्य जब अपनी अपरिमित इच्छा पर स्वेच्छा से नियंत्रण करने का नियम लेता तो अपना अहोभाग्य मानता है तथा ऐसा अनुभव करता है कि वह अपने पर नियंत्रण करके समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन कर
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