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अपरिग्रह और समाजवाद : एक तुलना ४०१
रहा है और अधिक यह कि उसका 'परलोक' सुधरेगा । इसका एक कारण और है, और वह यह कि अपरिग्रह का विचार देश को जिन महापुरुषों ने दिया वह स्वयं अपने जीवनव्यवहार में उसे अमल में लाते थे । चाहे हम उसे 'समता' कहें या 'साम्ययोग' कहें। यह विचार अति प्राचीन है, अपितु यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि यह विचार प्राग ऐतिहासिक काल से है। युग साथ उसकी व्याख्या में परिवर्तन हुआ हो किन्तु मौलिक रूप से विचार विद्यमान था । इसकी तुलना में समाजवाद कानून द्वारा स्थापित नियंत्रण है और इस कारण जब यह नियंत्रण लगाया जाता है तब मनुष्य उसके उल्लंघन के मार्ग खोजता है । कारण कि वह कानून द्वारा स्थापित नियंत्रण को विवशता मानता है। इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि समाजवाद के मूल पुरस्कर्त्ता चाहे अपने जीवन में समाजवाद ला चुके हों, वैसा ही जीवन-व्यवहार चलाते हों किन्तु आज का राजनीति से प्रभावित समाजवाद और उसका जनक भारतीय शासन है और आंशिक रूप में प्रादेशिक शासन चाहे भारतीय शासन हो चाहे प्रादेशिक शासन उसके प्रमुख शासनकर्ता, उच्च अधिकारी ( जो समाजवाद के अनुरूप विचार रखकर कानून बनवाते हैं) का जीवन उसके अनुरूप नहीं स्वयं सामन्ती ढंग का विलासपूर्ण तरीकों ( वह भी करदाता के प्रदत्त धन के मूल्य पर ) से जीवन चलाकर भी समाजवाद की बातें करते हैं । इस कारण उसका प्रभाव नगण्य होता है । यही कारण है कि अपरिग्रह विचार के पीछे कानून की कोई शक्ति Sauction न होते हुए भी अधिक सफल है तथा समाजवाद के पीछे कानून की शक्ति के बावजूद अत्यन्त असफल है। गत २५-२६ वर्षों के प्रयत्नों के बावजूद परिणाम यह है कि घनी, सम्पन्न व्यक्ति अधिक सम्पन्न बन गया तथा गरीब अधिक गरीब बना । यह बात भारतीय शासन द्वारा प्रकाशित सर्वेक्षण की रिपोर्टस् से भलीभांति प्रगट है । इसी कारण पेश्वर जहां 'गरीबी हटाओ' के नारे बड़ी मुस्तैदी तथा जोश से लगाये जाते थे तथा उसके लिये हमारे शासनकर्ता प्रेरणा देते थे, वहाँ वही शासनकर्ता अब यह कहने लगे हैं कि 'गरीबी' स्वयं नहीं मिट सकती, हमारे पास जादू नहीं है, श्रम करना होगा, आदि । किन्तु यह कहने वाले को इसका उदाहरण स्वयं के जीवन से भी प्रस्तुत करना होगा, तब देश में लहर उत्पन्न होगी।
इसमें संदेह नहीं कि देश को प्रगति पथ पर ले जाने का दायित्व जिन मस्तिष्कों तथा कंधों पर है उनकी वाणी तथा कर्म में साम्य नहीं है । इसी कारण जन-साधारण पर श्रमसाध्य जीवन की बात का प्रभाव नहीं पड़ता । यदि हम अपरिग्रह के पुरस्कर्ता महापुरुषों के जीवन पर दृष्टिपात करें तो यह स्पस्ट होगा कि वहां वाणी कर्म की साम्यता है । लगभग २५०० वर्ष पूर्व जिस महापुरुष ने अपरिग्रह के विचार की प्रगतिशील ब्याख्या करके देश के सन्मुख रखा वह अकिंचन था । उसका सारा जीवन स्वावलम्बन पर आधारित था। यही नहीं जब उस पर उपसर्गों के कारण विपत्ति आई तो इन्द्र ने आकर प्रार्थना की भगवन् आपको कष्ट न हो इसलिये आपकी रक्षा हेतु मैं साथ रहा करू, तब उस महापुरुष ने जो उत्तर दिया उसका भावार्थ था कि
स्ववीर्येण गच्छन्ति जिनेन्द्राः परम गति ।
मुझे सहन करना
हे इन्द्र ! मैं अपनी साधना में व्यस्त है, यदि कोई विपत्ति आती हो तो चाहिये। जिनेन्द्र अपनी शक्ति के बल पर ही परम गति को प्राप्त करते हैं। पुरुष ने चतुविध संघ के महत्वपूर्ण दो घटक साधु तथा साध्वी के लिये जो स्वावलम्बन पर आधारित है, उसमें परमुखापेक्षिता नहीं । वास्तविक रूप से देखा जाये तो वह महापुरुष अपरिग्रही था। आधुनिक भाषा में कहें तो समाजवादी था, जिसने अपने जीवन में स्वयं
चर्या
नहीं उस महाबनाई वह स्वयं
समता के तत्व उतार लिये थे, तब जगत को स्वानुभूति पूर्ण उपदेश युग के महापुरुष गांधीजी के सम्बन्ध में सत्य है। वह भी सच्चे
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दिया था । यही बात आधुनिक समाजवादी थे, उन्होंने charety
यही
आचार्य प्रव
श्रीआनन्द आचार्य प्रव
ग्रन्थ
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श्री आनन्दत्र ग्रन्थ
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