SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ रविशंकर मिश्र में पधारे अतिथियों का यथाविधि स्वागत-सत्कार हो रहा था । तत्पश्चात् श्रीनेमि मतवाले राजवाह्य ( वह राजकीय हाथी, जिस पर राजा विशेष अवसर पर आरूढ़ होता है) पर आरूढ़ होकर अपने सभी सम्बन्धी बन्धु-परिजन के साथ विवाह हेतु चल पड़े। विवाह हेतु सुसज्जित श्रीनेमि की शोभा देखने हेतु पुरवासी अत्यन्त व्यग्र से थे ।' इस प्रकार विवाह-हेतु आ रहे श्रीनेमि का वर्णन करती हुई राजीमती मेघ से आगे कहती है कि नान्दीरव को सुनते ही पाणिग्रहण योग्य वेष धारण की हुई मैं, उन श्रीनेमि को देखने के लिए अति व्याकुल हो उठी। तभी सखियों के–'पेञ्जूषेषु स्वविषयसुखं भेजिवत्सूत्सुकायामायान्त्यस्मै सखि ! सुखयितुं किं न चक्षूषि युक्तम् ?' ( कर्णों के अपने विषय-सख (शब्द) को प्राप्त कर लेने पर अपने विषयसुख (दर्शन) के लिए उत्सुक होनेवाली आँखों को सुख देना क्या उचित नहीं है ?)--इस वचन का बहुमान करती हुई मैं गवाक्ष पर चढ़ गयी। उन आयुष्मान् के दर्शन होते ही मुझमें मोह का इतना महासमुद्र उमड़ा कि उस समुद्र की तरङ्गमाला से चञ्चलचित्तवाली तथा जड़ीभूत सी होकर मैं क्षण भर- "मैं कौन हूँ? वह कौन है ? मैं क्या कर रही हूँ ?' आदि कुछ भी न जान सकी। अभी राजीमती इसी उहापोह में थी कि तभी उसके दाहिने नेत्र ने फड़क कर भाग्याभाव के कारण उसके मनोरथरूपी कमलसमूहों को सकुचित बना दिया। इस घटना से घबरायी उसकी सखियाँ, उसे जब तक समझा सकें, तब तक भगवान् श्रीनेमि ने पशुओं के करुण-आर्तनाद को सुन लिया । महावत से पूछने पर प्रभु को ज्ञात हुआ कि इन पशुओं के आमिष से विवाह-भोज का शोभा-सम्भार बढ़ाया जायेगा और तब महावत ने-यह निश्चय कर कि इन निरीह पशुओं को छुड़ाकर मैं दीक्षा प्राप्त कर लूंगा-बन्धमोक्षसमर्थ प्रभु को उस पशु-समूह के पास पहुँचा भी दिया । श्रीनेमि ने दीनता से ऊपर देखते हए एवं मजबत बँधे हए उन नभचर, पुरचर एवं वनचर प्राणियों को छडवा दिया और अपने हाथी को घर के सामने ले आये। वाष्पपरित नेत्रों से देखते हए श्रीनेमि के माता-पिता, श्रीकृष्ण आदि चिरभिलषित महोत्सव से निवृत्त श्रीनेमि से इस त्याग का कारण पूछने लगे। भूरि-भूरि आग्रह करने पर श्रीनेमि ने सभी को यह कहकर निवारित किया कि "इस तपस्या (दीक्षा) के बिना कोई भी स्त्री निश्चित ही बाधाओं को दूर नहीं सकती, जिसका फल सदैव सुखकारी हो। सज्जनों का वही कार्य श्लाघ्य होता है। मैं कर्मपाश में बँधे हुए प्राणियों को इन्हीं पशुओं के समान ही मुक्त करूँगा।" ते ही कि "श्रीनेमि व्रत हो ग्रहण करेंगे" यादवगण पथ्वी-आकाश को भी रुलाते हुए रोने लगे। यादवगण अभी रो ही रहे थे कि श्रीनेमि ने डिण्डिमघोष के साथ अपने भवन पहँच कर वार्षिक-दान प्रारम्भ कर दिया।" राजीमती मेघ से आगे कहती है कि अपने प्राणेश्वर के विवाह-भूमि से- वापस लौट जाने के समाचार से उत्पीडित मैं वल्लरी की भाँति गिर पड़ी और उस समय उत्पन्न दुःखरूपी ज्वार-भार यह ज्ञा १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक ३।३५ । २. वही, ३।३७ । ३. वही, ३।३९ । ४. वही, ३।४० । ५. वही, ३।४१ । ६. वही, ३४३ । ७. वही, ३।४४ । ८. वही, २।४५-४७ । ९. वही, ३।४८ । १०. वही, ३।४९ । ११. वही, ३१५०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210023
Book TitleAnchalgacchiya Acharya Merutung evam Unka Jain Meghdoot Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavishankar Mishr
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy