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________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य १२३ वाली मैंने मूर्च्छा समुद्र में डूबकर सुख सा अनुभूत किया। यह कहती हुई वह मेघ से यह समुद्र में डूबने से अत्यधिक कम्पनयुक्त कोई ताप ही शायद मुझे उत्पन्न हुआ है, जिस कारण मैं ऐसा अनर्गल प्रलाप कर रही हूँ ।" अभी वह फिर आगे कुछ कहती कि इसके पूर्व ही उसी समय सखियों की यह वाणी - "हे सखि ! यदि वह अग्नि तथा पूज्यजनों के समक्ष विवाह करके फिर तुम्हें छोड़ते, तब तो नाव को समुद्र में छोड़कर डुबा ही देते, अभी तो अधिक गुणवान् कोई अन्य राजपुत्र तुम्हारा विवाह कर ही लेगा " - उसे जले पर नमक के समान लगी । परन्तु भारतीय नारी के एक-पतित्व के आदर्श का पालन करने वाली राजीमती ने योगिनी की भाँति उन प्रभु के ध्यान में ही सारा जीवन काट डालने की अपनी उन सखियों के समक्ष हो प्रतिज्ञा कर ली । वह मेघ से आगे कहती है कि यद्यपि अखिल विश्वपूज्य मेरे पति वे श्रीनेमि इस विवाहोत्सव को त्यागकर उसी भांति इसे असमाप्त छोड़कर चले गये हैं, जैसे तुम धारावृष्टि को छोड़कर चले जाते हो, परन्तु फिर भी मैं गृहस्थावस्था तक उनकी उसी प्रकार अपने हृदय में आशा लगाये रहूँगी, जैसे पुनः वर्षा नक्षत्र आने तक प्रजा तुम्हारी आशा लगाये रहती है । चतुर्थ सर्ग कथा : चतुर्थ सर्ग में मुख्य रूप से विरहविवशा राजीमती द्वारा पतिविरहिता स्त्री की दशाओं का सूक्ष्म वर्णन प्रस्तुत किया गया है । सर्वप्रथम राजीमती श्रीनेमि के दान की महिमा व प्रशंसा करती है ।" तत्पश्चात् एक वर्ष पूर्ण होने पर शरद ऋतु में सर्वाङ्गविभूषित श्रीनेमि को राजीमती ने गवाक्ष से वनकानन जाते हुए इस प्रकार देखा जैसे कमलिनी जल से जानेवाले रवि को देखती है । अपने प्रभु श्रीनेमि को अपने सामने ही वन जाते देख राजीमती प्रबल व विषम विरह पीडा से मूच्छित हो हो रही थी कि सखियों ने शीतोपचार द्वारा उसे सचेत किया । तदनन्तर "अब मैं उनके द्वारा कीचड़ से गीले व गन्दे हुए वस्त्र की भाँति त्याग दी गयी हूँ" इस विचार से अपार शोकपूरित हो, वह शोकजलपूर्ण- कुम्भ की भाँति हो गयी । ७ अपने स्वामी के जगज्जीवातु दर्शनों के पान से पुष्ट और अब उच्छ्वास व्याज से राजोमती का धूमायमान हृदय चूने को तरह फूट-फूट कर चूर्णित हो रहा था ।" वह अपनी विरहपूर्ण दोनावस्था का मार्मिक वर्णन करती हुई', मेघ से अपने हर्षवर्धक उन श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पास अपना सन्देश पहुँचाने का अनुरोध करती है ।" वह कहती है कि जब भगवान् श्रीनेमि रामजन्य सुखरस के पान से चिदानन्दपूर्ण हो, कुछ-कुछ आँखें खोलें, तब तुम उनके चरणों में भ्रमरलीला करते हुए प्रियम्वद व अखिन्न होकर, मृदुवचनों से सन्देश कहना कि जो निष्पापा मैं ईश-द्वारा पहले स्वीकार कर ली १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक ३१५१-५२ । ३. वही, ३।५४ । ५. वही, ४।१ २ । ७. वही, ४।६ । ९. वही, ४।८-१० । ११. वही, ४।१३ । Jain Education International २. वही, ३।५३ । ४. वही, ३।५५ । ६. वही, '४।३-४ | ८. वही, ४।७ । १०. वही, ४।११ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210023
Book TitleAnchalgacchiya Acharya Merutung evam Unka Jain Meghdoot Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavishankar Mishr
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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