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________________ अञ्चलगच्छीय आचार्यमेरुतुङ्ग एवं उनका जैनमेघदूतकाव्य १२१ तत्पश्चात् वह मेघ से श्रोनेमि के चरित्र का विस्तृत वर्णन करती है, जिसके अन्तर्गत वह श्री की बालसुलभ क्रीडाओं एवं पराक्रम-लीलाओं का अत्युक्तिपूर्ण वर्णन करती है । द्वितीय सर्ग कथा : द्वितीय सर्ग में वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतुओं का वर्णन किया गया है, जिसमें श्रीनेमि की विविध भाँति की वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतु की क्रीडाओं का वर्णन हुआ है । वसन्तागमन से वन उपवनों एवं तडाग पर्वतों की शोभा अत्यन्त रमणीय व मनोहारी हो गयी थी । ' इस प्रकार वसन्त-वर्णन के पश्चात् राजीमती कथा प्रसङ्गको पुनः आगे बढ़ाती हुई, श्रीनेमि एवं श्रीकृष्ण की वसन्तक्रीडा का वर्णन करती है । तदनन्तर राजीमती मेघ से श्रीनेमि के साथ श्रीकृष्ण की पत्नियों को वसन्त-क्रीडा का वर्णन करती है । परन्तु वह यह वर्णन कर ही रही थी कि तभी पुष्पित पारिजात से सुशोभित श्रीनेमि के मनोहारी स्वरूप का स्मरण करती हुई पुनः मूच्छित हो गयी । उसकी सखियों ने चन्दनयुक्त - जलधारा से उसे किसी प्रकार सचेत किया ।" सचेत होने पर राजीमती अपनी अधूरी कथा को पुनः प्रारम्भ करती हुई, श्रोनेमि व श्रीकृष्ण की वसन्तक्रीडा के पश्चात् ग्रीष्म ऋतु का वर्णन करती है, जो कि मानो स्वामि- सेवाशील भृत्य की भाँति अपने फल का उपहार देने के लिए वहाँ आ पहुँचा था । ग्रीष्म ऋतु वर्णन के पश्चात् राजीमती श्रीकृष्ण एवं उनकी पत्नियों के साथ श्रीनेमि की लीलोपवन में जल-केलि का वर्णन प्रस्तुत करती है । " तृतीय सर्ग कथा : तृतीय सर्ग में श्रीनेमि के विवाह महोत्सव एवं गृहत्याग का वर्णन किया गया है । सर्वप्रथम राजीमती मेघ से, लीलोपवन में जल-केलि कर निकले श्रीनेमि की अप्रतिम शोभा का वर्णन करती है ।' जलार्द्र वस्त्रों का त्यागकर रुक्मिणी द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठने के पश्चात् श्रीकृष्ण की पत्नियाँ, श्रीकृष्ण स्वयं एवं बलदेव आदि सभी श्रीनेमि को पाणिग्रहण हेतु बहुत समझाते हैं ।" अपने ज्येष्ठ, आदरणीय जनों के वचनों का तिरस्कार व निरादर न करते हुए श्रीनेमि उन सभी अग्रजों की आज्ञा को शिरोधार्य कर लेते हैं । " तब श्रीकृष्ण सहर्षं महाराज उग्रसेन से राजीमती को श्रीनेमि के साथ पाणिग्रहण हेतु माँगते हैं । ' २ श्रीनेमि के विवाह का सुसमाचार ज्ञात होने पर श्रीसमुद्र एवं शिवा अत्यन्त प्रसन्न होते हैं । पूरे नगर में विवाह सम्बन्धी तैयारियाँ होने लगीं । विवाह मण्डप नानाभाँति सजाया गया । दिनरात मधुर वाद्य यन्त्र एवं यदुस्त्रियों के अविश्रान्त स्वर गुञ्जरित हो उठे । १३ वर-वधू दोनों ही पक्षों १. आचार्य मेरुतुङ्ग : जैनमेघदूतम्, श्लोक २१२ - ११ । २. ३. वही, २।१८-२२ । ४. ५. वही, २।२५ । ६. वही, २।२९ । ७. वही, २।३०-३५ । ८. वही, २०३६-४९ ॥ १०. वही, ३।३ - २० । १२. वही, ३।२३ । ९. वही, ३।१ २ । १९. वही, ३।२१ । १३. वही, ३।२४-२८ । १६ वही, २।१२-१७ । वही, २।२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210023
Book TitleAnchalgacchiya Acharya Merutung evam Unka Jain Meghdoot Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavishankar Mishr
PublisherZ_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf
Publication Year1987
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size2 MB
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