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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ६९ जिसका नामकरण हो चुका है उसकी उसी आकारवाली प्रतिमा या चित्रमें स्थापना करना सद्भाव या तदाकार स्थापना कहलाती है । तथा भिन्न आकारवाली वस्तु में स्थापना करना असद्भाव या अतदाकार स्थापना कहलाती है, जैसे शतरंजके मुहरोंमें घोड़े आदिकी स्थापना । भविष्यत्कालीन राजपर्यायकी योग्यताके कारण या बीती हई राजपर्यायका निमित्त लेकर वर्तमानमें किसीको राजा कहना द्रव्य निक्षेप है। तत्पर्यायप्राप्त वस्तुमें तत्व्यवहारको भावनिक्षेप कहते हैं, जैसे वर्तमान राजपर्यायवाले राजाको ही राजा कहना । अप्रस्तुत अर्थका निराकरण, प्रस्तुत अर्थका प्ररूपण एवं संशय विनाशनके लिए निक्षेपकी सार्थकता है। अन्यत्पन्न श्रोताकी अपेक्षा अप्रस्तुतका निराकरण करनेके लिए, व्युत्पन्नकी अपेक्षा यदि वह संशयित है तो संशयविनाशके लिए और यदि विपर्यस्त है तो प्रस्तुत अर्थके प्ररूपणके लिए निक्षेपकी सार्थकता है। ५. सप्तभंगीनिरूपण सप्तभंगी-प्रश्नके अनुसार वस्तुमें प्रमाणाविरोधी विधि-प्रतिषेधकी कल्पनाको सप्तभंगी कहते हैं। विचार करके देखा जाय तो सप्तभंगीमें मल भंग तो तीन ही हैं, बाकी भंग संयोगज हैं। आगम ग्रन्थोंमें 'सिय अत्थि, सिय णत्थि, सिय अवत्तव्वा' रूपसे तीन ही भंगोंका निर्देश है। सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें हमें सात भंगोंके दर्शन होते है। अनेकान्तदष्टिका उद्देश्य परस्पर विरोधी धर्मोंका समन्वय करना है । वस्तुतः विरोध तो दोमें ही होता है जैसे नित्यत्वका अनित्यत्वसे, भेदका अभेदसे इत्यादि । अतः पहिले तो परस्पर विरोधी दो धर्मोके समन्वय करनेकी ही बात उठती है । ऐसे अनेक विरोधी युगल वस्तुमें रह सकते हैं अतः वस्तु अनेकान्तात्मक एवं अनन्तधर्मा कही जाती है। अवक्तव्य धर्म तो वस्तुकी वास्तविक स्थिति बतानेवाला है कि वस्तुका अखण्डआत्मरूप शब्दोंका विषय नहीं हो सकता । कोई ज्ञानी अनिर्वचनीय, अखण्ड वस्तु को कहना चाहता है, वह पहिले उसका अस्तिरूपसे वर्णन करता है पर वस्तुके पूर्ण वर्णन करनेमें असमर्थ होनेपर नास्तिरूपसे वर्णन करता है । पर इस समय भी वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकताकी सीमा तक नहीं पहुँच पाता। लिहाजा कोशिश करनेपर भी अन्तमें उसे अवक्तव्य कहता है । शब्दमें वस्तुतः इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह समग्रवस्तुका पूर्णरूपसे प्रतिपादन करे। इसी अनिर्वचनीय तत्त्वका उपनिषदोंमें 'अस्ति अस्ति' रूपसे तथा 'नेति नेति' रूपसे भी वर्णन करनेका प्रयत्न किया गया है। पर वर्णन करनेवाला अपनी तथा शब्दकी असामर्थ्यपर खीज उठता है और अन्त में वरवस कह उठता है कि-'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह-जिसके वास्तविक स्वरूपकी प्राप्ति वचन तथा मन भी नहीं कर सकते अतः वे भी उससे निवृत्त हो जाते हैं, ऐसा है वह वचन तथा मनका अगोचर अखण्ड, अनिर्वचनीय, अनन्तधर्मा वस्तुतत्त्व । इसी स्थितिके अनुसार अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य ये तीन ही मूल भंग हो सकते हैं। आगेके भंग तो वस्तुतः कोई स्वतन्त्र भंग नहीं हैं। कार्मिक भंगजालकी तरह द्विसंयोगीरूपसे तृतीय, पञ्चम तथा षष्ठ भंगका आविर्भाव हआ तथा सप्तमभंगका त्रिसंयोगीके रूपमें। तीन मल भंगोंके अपनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं । कहीं-कहीं अवक्तव्य भंगका नंबर तीसरा है और कहीं उभय भंगका । वस्तुतः अवक्तव्य मल भंग है । अतः उसीका नंबर तीसरा होना चाहिये । प्रथम भंगमें स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे वस्तुका अस्तित्व विवक्षित होता है। द्वितीय भंगमें परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नास्तित्वकी विवक्षा होती है। यदि वस्तुमें स्वद्रव्यादिकी अपेक्षासे अस्तित्व न माना जाय तो वस्तु निःस्वरूप हो जायगी। और यदि परका नास्तित्व न माना जाय तो वस्तु सांकर्य हो जायगा; क्योंकि घटमें पटका नास्तित्व न रहनेके कारण घट और पट एक हो जाना अनिवार्य ही है । यद्यपि आपाततः यह मा लम होता है कि स्वसत्त्व ही परासत्त्व है; पर विचार करनेसे मालम हो जाता है कि ये दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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