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________________ ६८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ नित्यमें उत्पाद और व्यय तथा सर्वथा क्षणिकमें स्थैर्य नहीं है। इस तरह कारकव्यवस्था न होनेसे विभिन्न कारकोंमें निष्पन्न स्त्रीलिङ्ग, पुल्लिङ्ग आदिकी व्यवस्था भी एकान्त पक्षमें नहीं हो सकती। इस तरह कालादिके भेदसे अर्थभेद मानकर शब्द नय उनमें विभिन्न शब्दोंका प्रयोग मानता है। कालादि भेदसे शब्दभेद होनेपर भी अर्थभेद नहीं मानना शब्दनयाभास है । समभिरूढ-एक कालवाचक, एक लिङ्गक तथा एक संख्याक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं । समभिरूढ नय उन प्रत्येक पर्यायवाची शब्दोंके द्वारा अर्थमें भेद मानता है। इस नयके अभिप्रायसे एक लिंगवाले इन्द्र, शक्र तथा पुरन्दर इन तीन शब्दोंमें प्रवृत्ति निमित्तकी विभिन्नता होनेसे विभिन्नार्थवाचकता है । शक्रशब्दका प्रवृत्तिनिमित्त शासनक्रिया, इन्द्रशब्दका प्रवृत्तिनिमित्त इन्दनक्रिया तथा पुरन्दरशब्दका प्रवृत्तिनिमित्त पूरणक्रिया है । अतः तीनों शब्द विभिन्न अवस्थाओंके वाचक है। शब्दनयमें एकलिंगवाले पर्यायवाची शब्दोंमें अर्थ भेद नहीं था, पर समभिरूढ नयमें विभिन्न प्रवृत्तिनिमित्त होनेसे एकलिङ्गक पर्यायवाची शब्दोंमें भी अर्थभेद होना अनिवार्य है । पर्यायवाची शब्दोंकी दृष्टिसे अर्थमें भेद नहीं मानना समभिरूढाभास है। एवंभूतनय-क्रियाके भेदसे भी अर्थभेद माननेवाला एवंभूतनय है । यह नय क्रियाकालमें ही तरिक्रयानिमित्तक शब्दके प्रयोगको साधु मानता है। जब इन्द्र इन्दन-क्रिया कर रहा हो उसी समय उसे इन्द्र कह सकते हैं दसरे समयमें नहीं। समभिरूढ नय उस समय क्रिया हो या न हो, पर अतीत-अनागत क्रिया या उस क्रियाकी योग्यता होनेके कारण तच्छन्दका प्रयोग मान लेता है। पर एवं भतनय क्रियाकी मौजूदगीमें ही तक्रियासे निष्पन्न शब्दके प्रयोगको साधु मानता है। इस नयकी दृष्टिसे जब कार्य कर रहा है तभी कारक कहा जायगा, कार्य न करनेकी अवस्थामें कारक नहीं कहा जा सकता । क्रियाभेद होनेपर भी अर्थको अभिन्न मानना एवंभूताभास है। ___ इन नयोंमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं अल्पविषयता है । नैगमनय संकल्पग्राही होनेसे सत् असत् दोनोंको विषय करता था इसलिए सन्मात्रग्राही संग्रह नय उससे सूक्ष्म एवं अल्पविषयक होता है । सन्मात्रग्राही संग्रहनयसे सद्विशेषग्राही व्यवहार अल्पविषयक एवं सूक्ष्म हुआ। त्रिकालवर्ती सद्विशेषग्राही व्यवहारनयसे वर्तमानकालीन सद्विशेष-अर्थपर्यायग्राही ऋजुसूत्र सूक्ष्म है । शब्दभेद होनेपर भी अभिन्नार्थग्राही ऋजुसूत्रसे कालादिभेदसे शब्दभेद मानकर भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला शब्दनय सूक्ष्म है। पर्यायभेद होनेपर भी अभिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाले शब्दनयसे पर्यायवाची शब्दोंके भेदसे अर्थभेदग्राही समभिरूढ अल्पविषयक एवं सूक्ष्मतर हआ। क्रियाभेदसे अर्थभेद नहीं माननेवाले समभिरुढसे क्रियाभेद होनेपर अर्थभेदग्राही एवंभूत परमसूक्ष्म एवं अत्यल्पविषयक होता है । ४. निक्षेपनिरूपण निक्षेप-अखण्ड एवं अनिर्वचनीय वस्तुको व्यवहारमें लानेके लिए उसमें भेद कल्पना करनेको निक्षेप कहते हैं । व्यवहार ज्ञान, शब्द तथा अर्थरूपसे तीन प्रकारका होता है। शब्दात्मक व्यवहारके लिए ही वस्तूका देवदत आदि नाम रखा जाता है। अतः शब्दव्यवहारके निर्वाह के लिए नाम निक्षेपकी सार्थकता है । ज्ञानात्मक-व्यवहारके लिए स्थापना निक्षेप तथा अर्थात्मक व्यवहारके लिए द्रव्य और भाव निक्षेप सार्थक हैं । शब्दका प्रयोग जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया आदि निमित्तोंकी अपेक्षासे होता है । जाति, द्रव्य, गुण आदि निमित्तोंकी अपेक्षा न करके इच्छानुसार संज्ञा रखनेको नामनिक्षेप कहते हैं। जैसे किसी बालककी गजराज संज्ञामात्र इच्छानुसार ही की गई है, उसमें गजत्वजाति, गजके गुण, गजकी क्रिया आदि की अपेक्षा नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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