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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ६७ व्यवहार-व्यवहानाभास-संग्रहनयके द्वारा गृहीत अर्थमें विधिपूर्वक अविसंवादी-वस्तुस्थितिमलक भेद करनेवाला व्यवहारनय है। यह व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध व्यवहारका अविरोधी होता है । लोकव्यवहारविरुद्ध , वस्तुस्थितिकी अपेक्षा न करनेवाली भेदकल्पना व्यवहाराभास है । लोकव्यवहार अर्थ, शब्द तथा ज्ञानरूपसे चलता है। जैसे जीवव्यवहार जीव अर्थ, जीवशब्द तथा जीवविषयक ज्ञान इन तीनों प्रकारोंसे हो सकता है । वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यवाली है, द्रव्य गुणपर्यायवाला है, जीव चैतन्यरूप है' इत्यादि वाक्य प्रमाणसे अविरोधी होने के कारण तथा लोकव्यवहारमें अविसंवादी होनेसे प्रमाण है, एवं पूर्वापरके अविरोधी होनेसे ये सद्व्यवहारके विषय है । प्रमाणविरुद्ध कल्पनाएँ व्यवहाराभास हैं; जैसे सौत्रान्तिकका जड या चेतन सभी पदार्थोको क्षणिक, निरंश, परमाणुरूप मानना, योगाचारका क्षणिक अविभागी विज्ञानाद्वैत मानना, तथा माध्यमिकका सर्वशून्यता स्वीकार करना । ये सब व्यवहाराभास प्रमाणविरोधी तथा लोकव्यवहारमें विसंवादक होते हैं । जो भेदव्यवहार अभेदकी अपेक्षा रखेगा वही व्यवहारनयकी परिधिमें आयगा, तथा जो अभेदका निराकरण करेगा वह दुर्व्यवहार-व्यवहाराभास कहलायगा । ऋजसूत्र-तदाभास-ऋजुसूत्र नय पदार्थकी एक क्षणरूप शुद्ध वर्तमानकालव” अर्थपर्यायको विषय करनेवाला है। इसको दृष्टिमें अभेद कोई वास्तविक नहीं है। चित्रज्ञान भी एक न होकर अनेक ज्ञानोंका समुदायमात्र है । इस तरह समस्त जगत् एक-दूसरेसे बिलकुल भिन्न है, एक पर्याय दूसरी पर्यायसे भिन्न है। यह भेद इतना सक्षम है कि स्थूलदृष्टिवाले लोगोंको मालम नहीं होता । जैसे परस्परमें विभिन्न भी वृक्ष दरसे सघन तथा एकाकार रूपसे प्रतिभासित होते हैं, ठीक इसी तरह अभेद एक प्रातिभासिक वस्तु है । इस नयकी दृष्टिमें एक या नित्य कोई वस्तु ही नहीं है; क्योंकि भेद और अभेदका परस्परमें विरोध है। इस तरह यह ऋजुसूत्र नय यद्यपि भेदको मुख्यरूपसे विषय करता है पर वह अभेदका प्रतिक्षेप नहीं करता। यह अभेदका प्रतिक्षेप कर दे तो बौद्धाभिमत क्षणिकतत्त्वकी तरह ऋजुसूत्राभास हो जायगा । सापेक्ष ही नय होता है । निरपेक्ष तो दुर्नय कहलाता है। जिस प्रकार भेदका प्रतिभास होनेसे वस्तुमें भेदको व्यवस्था है उसी तरह जब अभेदका भी प्रतिभास होता है तो उसकी भी व्यवस्था होनी ही चाहिए। भेद और अभेद दोनों ही सापेक्ष हैं । एकका लोप करनेसे दूसरेका लोप होना अवश्यम्भावी है। शब्द-काल, कारक, लिंग तथा संख्याके भेदसे शब्दभेद द्वारा भिन्न अर्थोंको ग्रहण करनेवाला शब्दनय है । शब्दनय के अभिप्रायसे अतीत, अनागत एवं वर्तमानकालीन क्रियाओंके साथ प्रयुक्त होनेवाला एक ही देवदत्त भिन्न हो जाता है । 'करोति क्रियते' आदि कर्तृ-कर्मसाधनमें प्रयुक्त भी देवदत्त भिन्न-भिन्न है। 'देवदत्त देवदत्ता' आदि लिंगभेदसे प्रयोगमें आनेवाला देवदत्त भी एक नहीं है। एकवचन, द्विवचन तथा बहवचनमें प्रयुक्त देवदत्त भी पृथक्-पृथक् है । इसकी दृष्टिसे भिन्नकालीन, भिन्नकारकनिष्पन्न भिन्नलिङ्गक एवं भिन्नसंख्याक शब्द एक अर्थके वाचक नहीं हो सकते । शब्दभेदसे अर्थभेद होना ही चाहिए। वर्त्तना-परिणमन करनेवाला तथा स्वतः परिणमनशील द्रव्योंके परिणमनमें सहायक होनेवाला काल द्रव्य है। इसके भूत, भविष्यत् और वर्तमान, ये तीन भेद हैं। केवल द्रव्य, केवल शक्ति, तथा अनपेक्ष द्रव्य और शक्तिको कारक नहों कहते; किन्तु शक्तिविशिष्ट द्रव्यको कारक कहते हैं। लिंग चिह्नको कहते है। जो गर्भ धारण कर सके वह स्त्री, जो पुत्रादिकी उत्पादक सामर्थ्य रखे वह पुरुष, तथा जिसमें ये दोनों सामर्थ्य न हों वह नपुंसक कहा जाता है । कालादिके ये लक्षण अनेकान्तात्मक अर्थमें ही बन सकते हैं। एक ही वस्त विभिन्न सामग्रीके मिलनेपर षटकारक रूपसे परिणमन कर सकती है । कालादिभेदसे एक द्रव्यकी नाना पर्यायें हो सकती हैं । एकरूप-सर्वथा नित्य या अनित्य वस्तुमें ऐसा परिणमन नहीं हो सकताः क्योंकि सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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