________________
j j
४५
लाभ जानकर मुनि हर्षविशाल और पंचानन महात्मा आदि के साथ वाचकजी को भी भेजा। मिती श्रावण शुक्ल १३ को प्रथम प्रयाण राजा रामदास की वाड़ी में हुआ । उस समय सम्राट, सलीम तथा राजा, महाराजा और विद्वानों की एक विशाल सभा एकत्र हुई जिसमें सूरिजी को भी अपनी शिष्य मण्डली सहित निमन्त्रित किया। सभा में समयसुन्दरजी ने 'राजानो ददते सौख्यं' १०२२४०७ अर्थ वाला अष्टलक्षी ग्रन्थ पढ़कर सम्राट ने उसे अपने हाथ में लेकर रचयिता को करके प्रमाणीभूत घोषित किया ।
इस
वाक्य के
सुनाया ।
समर्पित
कश्मीर जाते हुए रोहतासपुर में मंत्रोश्वर को शाही अन्तःपुर की रक्षा के लिए रुकना पड़ा । वाचकजी सम्राट के साथ में थे । उनके उपदेश से मार्गवर्ती तालाबों के जलचर जीवों का मारना निषिद्ध हुआ। कश्मीर के कठिन व पथरीले मार्ग में शीतादि परिषह सहते हुए पैदल चलने वाले वाचकजी की साधुचर्या का सम्राट के हृदय में गहरा प्रभाव पड़ा। विजय प्राप्त कर श्रीनगर आने पर वाचक जी के उपदेश से सम्राट ने आठ दिन तक अमारि उद्घोषणा करवाई ।
Jain Education International
सं० १६४६ के माघ में लाहोर लौटने पर सूरिजी ने साधुमंडली सहित जाकर सम्राट को आशीर्वाद दिया । सम्राट ने वाचक जी को कश्मीर प्रवास में निकट से देखा था अतः उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए इन्हें आचार्य पद से विभूषित करने के लिए सूरिजी से निवेदन किया ।
सूरिजी की सम्मति पाकर सम्राट ने मंत्री कर्मचन्द्र से कहा - वाचकजी सिंह के सदृश चारित्र धर्म में दृढ़ हैं अतः उनका नाम 'सिंहसूर' रखा जाय और बड़े गुरु महाराज के लिए ऐसा कौन सा सर्वोच्च पद है जो तुम्हारे धर्मानुसार उन्हें दिया जाय । कर्मचन्द्र ने जिनदत्तसूरि जी का जीवनवृत्त बताया और उनके देवता प्रदत्त युगप्रधान पद से प्रभावित होकर अकबर ने सूरिजी को 'युगप्रधान ' घोषित करते जैन
हुए
धर्म की विधि के अनुसार उत्सव करने की आज्ञा दी । कर्मचन्द्रने राजा रायसिंहजी की अनुमति पाकर संघ को एकत्र किया और संघ- आज्ञा प्राप्त कर फाल्गुण कृष्ण १० से अष्टाह्निका महोत्सव प्रारम्भ किया और फाल्गुन शुक्ल २ के दिन मध्याह्न में श्री जिनसिंहसूरि का आचार्य पद, वा० जयसोम और रत्ननिधान को उपाध्याय पद एवं पं० गुणविनय व समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया गया। यह उत्सव संखवाल साधुदेव के बनाये हुए खरतर गच्छोपाश्रय में हुआ । मन्त्रीश्वर ने दिल खोलकर अपार धन राशि व्यय की । सम्राट ने लाहोर में तो अमारि उद्घोषणा की ही पर सूरिजी के उपदेश से खंभात के समुद्र के असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षावधि अभयदान देने का फरमान जारी किया । "युगप्रधान " गुरु के नाम पर मंत्रीश्वर ने सवा करोड़ का दान किया । सम्राट के सन्मुख भी दस हजार रुपये, १० हाथी, १२ घोड़े और २७ तुक्कस भेंट रखे जिसमें से सम्राट ने मंगल के निमित्त केवल १ रुपया स्वीकार किया । सूरिमहाराज ने बोहित्य संतति को पाक्षिक, चातुर्मासिक, व सांवत्सरिक पर्वों में जयतिहुमण बोलने का व श्रीमालों को प्रतिक्रमण में स्तुति बोलने का आदेश दिया । राजा रायसिंहजी ने कितने ही आगमादि ग्रन्थ सूरिमहाराज को समर्पण किये जिन्हें बीकानेर ज्ञानभण्डार में रखा गया ।
सूरिजी लाहोर में धर्म-प्रभावना कर हापाणा पधारे और सं० १६५० का चातुर्मास किया । एक दिन रात्रि के समय चोर उपाश्रय में आये पर साधुओं के पास क्या रखा था ? बीकानेर ज्ञान भण्डार के लिए प्राप्त ग्रन्थादि चुरा कर चोर जाने लगे तो सूरिजी के तपोबल से वे अन्य हो गये और पुस्तकें वापस आ गई। सम्राट के पास लाहौर में जयसोमोपाध्यायादि चातुर्मास स्थित थे ही, सूरि महाराज ने लाहौर आकर सं० १६५१ का चातुर्मास किया जिससे अकबर को निरन्तर धर्मोपदेश मिलता रहा । अनेक
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org