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शिलालेखादि से प्रमाणित है कि सूरि महाराज के उपदेश से सम्राट ने सब मिलाकर वर्ष में छः महीने अपने राज्य में जीवहिंसा निषिद्ध की तथा सर्वत्र गोबध बंद कर गोरक्षा की और शत्रुञ्जय तीर्थ को करमुक्त किया ।
जहांगीर की आत्मजीवनी, डा० विन्सेष्ट ए० स्मिथ, पुर्तगाली पादरी पिनहेरो व प्रो० ईश्वरीप्रसाद आदि के उल्लेखों से स्पष्ट है कि सूरिजी आदि के सम्पर्क में आकर अकबर बड़ा दयालु हो गया था । सम्राट के दरबारी व्यक्ति अबुल फजल, आजमखान, खानखाना इत्यादि पर भी सूरिजी का बड़ा प्रभाव था । धर्मसागर उपाध्याय के ग्रन्थ, जो कई बार अप्रमाणित ठहराये जा चुके थे, फिर प्रवचनपरीक्षा ग्रन्थ का विवाद छिड़ा जिसे अबुलफजल की सही से निकाले हुए शाही फरमान से निराकृत किया जाना प्रमाणित है ।
सम्राट ने सूरिजी से पंचनदी के पांच पीरों देवों को वश में करने का आग्रह किया क्योंकि जिनदत्तसूरि के कथा प्रसंग से वह प्रभावित था । सूरिजी सं १६५२ का चातुर्मास हापाणा करके मुलतान पधारे और चन्द्रवेल पत्तन जाकर पंचनदी के संगम स्थान में आयंबिल व अष्टमतप पूर्वक पहुँचे ।
सूरिजी के ध्यान में निश्चल होते ही नौका भी निश्चल हो गई। उनके सूरि-मंत्रजाप और सद्गुणों से आकृष्ट होकर पांचनदी के पांच पीर, मणिभद्र यक्ष, खोड़िया क्षेत्रपाल । दि सेवा में उपस्थित हो गये और उन्हें धर्मोन्नति-शासन प्रभावना में सहाय्य करने का वचन दिया ।
सूरिजी प्रात:काल चन्द्रवेलि पत्तन पधारे । घोरवाड़ साह नानिग के पुत्र राजपाल ने उत्सव किया। वहां से उच्चनगर होते हुए देरावर पधारे और दादा साहब श्री जिनकुशलसूरिजी के स्वर्ग-स्थान की चरण- वंदना की । तदनंतर श्री जिनमाणिक्यसूरिजी के निर्वाण स्तूप और नवहर पुर पार्श्वनाथ की यात्रा कर जेसलमेर में सं० १६५३ का
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चातुर्मास किया, फिर अहमदाबाद आकर माघसुदि १० को धनासुतार की पोल में शामला की पोल में ओर टेमला की पोल में बड़े समारोह से प्रतिष्ठा करवायी । सं० १६५४ में शत्रुंजय पधार कर मिती जेठ शु० ११ को मोटी- टुंक - विमलवसही के सभा मण्डप में दादा श्री जिनदत्तसूरिजी एवं श्री जिनकुशलसूरि जी की चरणपादुकाएं प्रतिष्ठित कीं। वहां से आकर, अहमदाबाद में चातुर्मास किया । सं० १६५५ का चौमासा खंभात किया । सम्राट अकबर ने बुरहानपुर में सूरिजी को स्मरण किया । फिर ईडर इत्यादि विचरते हुए अहमदाबाद आये। यहां मन्त्री कर्मचन्द का देहान्त हुआ । संवत् १६५७ पाटण चातुर्मास कर सीरोही पधारे, वहां माघ सुदि १० को प्रतिष्ठा की। सं० १६५८ खंभात, १६५६ अहमदाबाद, सं० १६६० पाटण, सं० १६६१ में महेवा चातुर्मास किया । मिती मि०कृ ५ को कांकरिया कम्मा के द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है । सं० १६६२ में बीकानेर पधारे। चैत्र कृष्ण ७ के दिन नाहटों की गवाड़ स्थित शत्रुञ्जयावतार आदिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा करवायी । सं० १६६३ का चातुर्मास बोकानेर में हुआ। सं० १६६४ बैशाख सुदि ७ को फिर बीकानेर में प्रतिष्ठा हुई । संभवतः यह प्रतिष्ठा महावीर स्वामी के मन्दिर की हुई थी ।
सं १६६४ का चातुर्मास लवेरा में हुआ । जोधपुर से राजा सूरसिंह वन्दनार्थं आये । अपने राज्य में सर्वत्र सूरिजी का वाजित्रों में प्रवेश हो, इसके लिए परवाना जाहिर किया । सं० १६६५ में मेड़ता चातुर्मास बिताकर अहमदा बाद पधारे । सं १६६६ का चातुर्मास खंभात किया । सं १६६७ का चातुर्मास अहमदाबाद में करके सं १६६८ का चातुर्मास पाटण में किया ।
इस समय एक ऐसी घटना हुई जिससे सूरिजी को वृद्धावस्था में भी सत्वर विहार करके आगरा आना पड़ा। बात यह थी कि जहांगीर का शासन था, उसने किसी यति के अनाचार से क्षुब्ध होकर सभी यति-साधुओं को आदेश दिया
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