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विषवमन किया और सुविहित शिरोमणि नवाङ्ग वृतिकर्त्ता अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में नहीं हुए, खरतरगच्छ की उत्पत्ति बाद में हुई, यह गलत प्ररूपणा की; क्योंकि अभयदेवसूरिजी सर्वगच्छ मान्य महापुरुष थे और उन्हें खरतरगच्छ में हुए अमान्य करके ही वे अपनी चित्तकालुष्यवृत्ति - खण्डनात्मक दुष्प्रवृत्ति की पूर्ति कर सकते थे ।
जब उनकी यह दुष्प्रवृत्ति प्रकाश में आई तो श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने उसका प्रबल विरोध किया और धर्मवार उपाध्याय को समस्त गच्छाचार्यो की उपस्थिति में कार्तिक सुदि ४ के दिन शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया । पर वे पंचासरापाड़ा की पोशाल में छिप बैठे। दूसरी बार कार्तिक सुदि ७ को फिर धर्मसागर को बुलाया पर उनके न आने पर चौरासी गच्छन्त्रीका- गीतार्थो के समक्ष अभय - देवसूरि के खरतरगच्छ में होने के विविध प्रमाणों सहित 'मतपत्र' लिखा गया और उसमें समस्त गच्छाचार्यों की सही कराके उत्सूत्रभाषी धर्मसागर को निह्नव प्रमाणित कर जैन संघ से बहिष्कृत कर दिया गया ।
इस प्रकार पाटण में पुनः शास्त्रार्थ विजय की सुविहित पताका फहरा कर सूरिजी खभात पधारे। सं० १६१८ का चातुर्मास करके सं० १६१६ में राजनगर अहमदावाद पधारे। यहां मंत्रीश्वर सारंगधर सत्यवादी के लाये हुए विद्वत्ताभिमानी भट्ट की समस्यापूर्ति कर उसे परास्त किया । सं० १६२० का चातुर्मास बीसलनगर और सं० १६२१ का चातुर्मास बीकानेर में किया । सं० १६२२ ० शु० ३ को प्रतिष्ठा कराके चातुर्मास जेसलमेर किया। बीकानेर के मंत्री संग्रामसिंह ने नागौर के हसनकुलोखान पर सन्धि विग्रह में जय प्राप्त कर सूरि महाराज का प्रवेशोत्सव कराया । सं० १६२२-२३ के चातुर्मास जेसलमेर में बिताकर खेतासर के चौपड़ा चांपसी-चांपलदे के पुत्र मानसिंह को मार्गशीर्ष कृ० ५ को दीक्षित किया । इनका नाम 'महिमराज' रखा, जो आगे चलकर सूरि महाराज के पट्टधर श्रीजिनसिंहसूरि नाम से प्रसिद्ध हुए ।
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सं० १६२४ का चौमासा नाडोलाई किया, मुगल सेना के भय से सभी नागरिक इतस्ततः नगर छोड़कर भागने लगे । सूरि महाराज उपाश्रय में निश्चल ध्यान में बैठे रहे, जिसके प्रभाव से मुगल सेना मार्ग भूलकर अन्यत्र चली गई । लोगों ने लौटकर सूरिजी के प्रत्यक्ष चमत्कार को देखकर भक्ति भाव से उनकी स्तवना की ।
सं० १६२५ बापेऊ, १६२६ बीकानेर, सं० १६२७ का चातुर्मास महिम करके आगरा पधारे और सौरीपुर, चन्द्रवाड़, हस्तिनापुरादि तीर्थों की यात्रा की। सं० १६२८ का चातुर्मास आगरा कर १६२९ का रोहतक किया ।
सं० १६३० के बीकानेर चातुमसि में प्रतिष्ठा व व्रतोचरण आदि धर्म कृत्य हुए। सं० १६३१-३२ का चातुर्मास भी बीकानेर हुआ । सं० १६३३ में फलौधी पार्श्वनाथ तीर्थ के तालों को हाथ स्पर्श से खोल कर तीर्थ दर्शन किया । फिर जेसलमेर चातुर्मास कर गेली श्राविकादिको व्रतोच्चारण करवाये । तदनन्तर देरावर पधारे और कुशल गुरु के स्वर्गस्थान की यात्रा कर वहीं चातुर्मास किया । १६३५ जेसलमेर, सं० १६३६ बीकानेर, सं० १६३७ सेरूणा, सं० १६३८ बीकानेर सं० १६३६ जेसलमेर, सं० १६४० आसनीकोट में चातुर्मास करके जेसलमेर पधारे । माघ सुदी ५ को अपने शिष्य महिमराज जी को वाचक पद से अलंकृत किया । सं० १६४१ का चातुर्मास करके पाटण पधारे । सं० १६४२ का चातुर्मास कर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। सं० १६४३ का चौमासा अहमदाबाद कर के धर्मसागर के उत्सूत्रात्मक ग्रन्थों का उच्छेद किया । सं० १६४४ में खंभात चातुर्मासकर अहमदाबाद पधारे सघपति सोमजी साह के संघ सहित शत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रा की । सं० १६४५ सूरत, स० २६४६ अहमदाबाद पधारे और विजयादशमी के दिन हाजापटेल की पोल स्थि । शिवा सोमजी के शांतिनाथ जिनालय को प्रतिष्ठा बड़ी धूम-धाम से की। मन्दिर में ३१ पंक्तियों का शिलालेख लगा हुआ है एवं एक देहरी में संखवाल गोत्राय श्रावकों
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