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प्रवेश हो चुका था जिसे परिहार कर क्रियोद्धार करने की भावना सभी गच्छनायकों में उत्पन्न हुई। श्रीजिनमाणिक्यसूरि जी महाराज ने भी दादासाहब श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज के स्वर्गवास से पवित्र तीर्थरूप देरावर की यात्रा करके गच्छ में फैले हुए शिथिलाचार को समूल नष्ट करने का संकल्प किया परन्तु भवितव्यता वश वे अपने विचारों को कार्य रूप में परिणत न कर सके और वहां से जेसलमेर आते हुए मार्ग में पिपासा परिषह उत्पन्न हो जाने से अनशन स्वीकार कर लिया । सन्ध्या के पश्चात् किसी पथिकादि के पास पानी की योगवाई भी मिली पर सूरिमहाराज अपने चिरकाल के चौविहार व्रत को भंग करने के लिए राजी नहीं हुए । उनका स्वर्गवास होने पर जब २४ शिष्य जेसलमेर पधारे तो गुरुभक्त रावल मालदेव ने स्वयं आचार्य-पदोत्सव की तैयारियाँ कीं और तत्र विराजित खरतरगच्छ के बेगड़ शाखा के प्रभावक आचार्य श्रीगुणप्रभसूरिजी महाराज से बड़े समारोह के साथ मिती भाद्रपद शुक्ल 8 गुरुवार के दिन सतरह वर्ष की आयु वाले श्री सुमतिधीरजी को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करवाया। गच्छ मर्यादानुसार आपका नाम श्री जिनचन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुआ । उसी रात्रि में गुरु महाराज श्रीजित माणिक्यसूरिजी ने दर्शन देकर समवशरण पुस्तिका स्थित स म्नाय सूरि-मन्त्रविधि निर्देश पत्र की ओर संकेत किया ।
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साधु-मार्ग से प्रयोजन हो, वे हमारे साथ रहें और जो लोग असमर्थ हों, वे वेश त्यागकर गृहस्थ बन जावें । क्योंकि साधुवे
चार अक्षय है। सूरिजी के प्रबल पुरुषार्थ से ३०० यतियों में से सोलह व्यक्ति चन्द्रमा की सोलह कला रूप जिन चन्द्रसूरिजी के साथ हो गए। संयम पालन में असमर्थ अवशिष्ट लोगों को मस्तक पर पगडी धारण कराके 'मत्थेरण' गृहस्थ बनाया गया, जो महात्मा कहलाने लगे और अध्यापन, लेखन व चित्रकलादि का काम करके अपनी आजीविका चलाने लगे ।
सूरिजी की क्रान्ति सफल हुई। यह क्रियोद्वार सं० १६१४ चैत्र कृष्ण ७ को हुआ। बीकानेर चातुर्मास के अनन्तर सं० १६१५ का चातुर्मास महेवानगर में किया और नाकोड़ा पार्श्वनाथ प्रभु के सान्निध्य में छम्मासी तपाराधन किया । तप जप के प्रभाव से आपकी योगशक्तियां विकसित होने लगीं । चातुर्मास के पश्चात् आप गुजरात की राजधानी पाटण पधारे । सं० १६१६ माघ सूदि ११ को बीकानेर से निकले हुए यात्री संघ ने शत्रुञ्जय यात्रा से लौटते हुए पाटण में जंगमतीर्थ- सूरिमहाराज की चरण वन्दना की ।
चातुर्मास पूर्ण कर आपश्री बीकानेर पधारे। मंत्री संग्रामसिंह वच्छावत की प्रबल प्रार्थना थी, अत: संघ के उपाश्रय में जहाँ तीन सौ यतिवण विद्यमान थे, चातुर्मास न कर सूरिजी मंत्रोश्वर की अश्वशाला में ही रहे । उनका युवक हृदय वैराग्यरस से ओत-प्रोत था । उन्होंने महान वितन-मनन के पश्चात् क्रान्ति का मूल मंत्र क्रिया - उद्धार की भावना को कार्यान्वित करना निश्चित किया ।
मंत्री संग्रामसिंह का इस कार्य में पूर्ण सहयोग रहा, सूरि महाराज ने यतिजनों को आज्ञा दी कि जिन्हें शुद्ध
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उन दिनों गुजरात में खरतरगच्छ का प्रभाव सर्वत्र विस्तृत था, पाटण तो खरतर विरुद प्राप्ति का और वसतिवा प्रकाश का आद्य दुर्ग था । सूरि महाराज वहां चातुर्मास में विराजमान थे, उन्होंने पौषध विधिप्रकरण पर (३५५४ श्लोक परिमित विद्वत्तापूर्ण टीका रची, जिसे महोपाध्याय पुण्यसागर और वा० साधुकीर्ति गणि जैसे विज्ञान गोतार्थी ने संशोधित की ।
उस जमाने में तपागच्छ में धर्मसागर उपाध्याय एक कलहप्रिय और विद्वत्ताभिमानी व्यक्ति हुए, जिन्होंने जैन समाज में पारस्परिक द्वेष भाव वृद्धि करने वाले कतिपय ग्रन्थों की रचना करके शान्ति के समुद्र सदृश जैन समाज में द्वेष वड़वाग्नि उत्पन्न की। उन्होंने सभी गच्छों के प्रति
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